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वैष्णवो की वार्ता
(
वैष्णव
११३)श्रीसांईजी
के सेवक कायस्थ विटठलदास की
वार्ता
विटठलदास कायस्थ ने गौड़ देश में जाकर एक परगना इजारे में लिया था| उस परगने में विटठालदास को टोटा (नुकसान) रहा | परिणामत: गौड़ देश के पातशाह के दीवान नारायणदास ने उसे बन्दीखाने में दाल दिया | प्रतिदिन उनमें मार लगाईं जाती थी लेकिन विटठलदास ने कभी नारायणदास के सम्मुख अपनी वैष्णवता प्रगट नहीं की | जब विटठलदास हिसाब चुकाकर बन्दी खाने से छूटे,उसी समय श्रीगुसांईजी भी गौड़ देश में पधारे | संयोगवश नारायणदास जब दर्शन करने गए उसी समय विटठलदास भी श्रीगुसांईजी के दर्शनार्थ आए | श्रीगुसांईजी ने पूछा-" विटठलदास इतने दिनों से कहाँ थे?" विटठलदास ने कहा - " महाराज,मैं तो इसी देश में रहता हूँ |" जब श्रीगुसांईजी भोजन कर चुके तो उन्होंने विटठलदास को प्रसाद लेने की आज्ञा दी | विटठलदास ने कपड़ा उतारे तो उनके शरीर पर बहुत से निशान दिखाई दिये कयोंकि विटठलदास को बंदीखाने में बहुत मार पड़ी थी अत: उनके शरीर में निशान अभी तक विधमान थे | श्रीगुसांईजी ने पूछा - "विटठलदास,तुमको यह क्या हुआ | तुम्हारी दे ह ऐसी कैसे हो गई |" विटठलदास ने कहा - " महाराज,देह को दण्ड तो देह ही भोगे है|" उस समय नारायणदास ने श्रीगुसांईजी से कहा - "महाराज,इनको तो मैंने ही मार दिलाई है यह अपराध तो मेरा ही है मैंने इन्हें वैष्णव नहीं जाना | मेरा अपराध क्षमा करें |" श्रीगुसांईजी ने कहा - " इसको वैष्णव नहीं जाना,तो जीव तो जाना था,वैष्णव को तो जीव मात्र के प्रति दयालु होना चाहिए | जिनके मन में दया,विवेक,धैर्य और भगवदाश्रय नहीं होता है,उनके चित्त में भगवत आवेश नहीं होता है| देखो, विटठलदास कैसे धैर्यवान है जो इतना कष्ट पाकर भी वैष्णवता को गुप्त रखा | ऐसे ही लोगों पर श्रीठाकुरजीप्रसन्न होते है और क्षमा याचना करके अपना अपराध क्षमा कराया | नारायणदास ने उससे कहा- " अब आप यहाँ सुख पूर्वक रहो|' विटठलदास ने कहा - " अब तुम मेरी वैष्णता जान गए हो अत: अब इस देश में नहीं रहूँगा |" इस प्रकार विटठलदास ऐसे कृपा पात्र भगवदीय थे जिन्होंने इतना कष्ट पाकर भी वैष्णवता को गुप्त रखा | अत: इनकी वार्ता को कहाँ तक विस्तार दिया जाए |
|जय
श्री कृष्णा|
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