भगवान् कृष्ण का जन्म
गीता में भगवान् कहते हैं कि उनका प्राकट्य, जन्म तथा कार्यकलाप सभी दिव्य हैं और जो उन्हें ठीक से समझ लेता है, वह तुरन्त ही वैकुण्ठ जाने का भागी जाता है। भगवान् का प्राकट्य या जन्म किसी सामान्य पुरुष का-सा नहीं । जिसे विगत कर्मों के आधार पर भौतिक शरीर धारण करने के लिए बाध्य होना पडता है। भगवान् के प्राकट्य की व्याख्या द्वितीय अध्याय में की गई है कि वे स्वेछा से प्रकट होते हैं। जब भगवान् के अवतार लेने का समय निकट आ या तो नक्षत्रगण अत्यन्त शुभ हो गये। रोहिणी नक्षत्र भी, जो फलितज्योतिष * अनसार शुभ माना जाता है, प्रबल था। रोहिणी ब्रह्मा के प्रत्यक्ष संचालन के अन्तर्गत माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार नक्षत्रों की उपयुक्त स्थिति के अतिरिक्त विभिन्न ग्रहों की भिन्न-भिन्न स्थितियों के कारण शुभ तथा अशुभ क्षण उपस्थित होते रहते हैं। कृष्ण के जन्म के समय सारे ग्रह स्वयमेव इस तरह स्थित हो गए कि सब कुछ शुभ बन गया।
उस समय पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर-सभी दिशाओं में शान्ति और सम्पन्नता का वातावरण था। आकाश में शुभ नक्षत्र दिख रहे थे और पृथ्वी पर सभी नगरों तथा ग्रामों या गोचरों में तथा जन-जन के मन में सौभाग्य के लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे थे। नदियाँ जल से पूर्ण होकर प्रवाहित हो रही थीं और सरोवरों में सुन्दर कमल खिले हुए थे। जंगल सुन्दर पक्षियों एवं मोरों से पूर्ण थे। जंगल के सारे पक्षी मधुर वाणी में गाने लगे और मयूर मयूरियों के साथ नाचने लगे। वायु अपने साथ विविध पुष्पों की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द बहने लगी, जिसका सुखद स्पर्श मन को मोहने लगा था। जो ब्राह्मण अग्नि में यज्ञ करने के अभ्यस्त थे, उन्हें आहुति के लिए अपने अपने घर अत्यन्त सुहावने लगने लगे। आसुरी राजाओं के उत्पातों के कारण ब्राह्मणों के घरों में हवनादि यज्ञ लगभग बन्द हो चुके थे, किन्तु अब उन्हें शान्तिपूर्वक यज्ञादि करने के अवसर प्राप्त हो रहे थे। यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगने के कारण ब्राह्मण मनसा-वाचा-कर्मणा अत्यन्त दुखी थे, किन्तु कष्ण के जन्म के समय उन सबके मन स्वयमेव प्रसन्नता से पर्ण हो गये क्योंकि उन्हें आकाश में भगवान के जन्म लेने की घोषणा करने वाली दिव्य वाणी गंजरित होती सुनाई दे रही थी। और चारणलोक के में देवता अपनी-अपनी गन्धर्व और किन्नरलोक के वासी गाने लगे चरण लोक के वासी भगवान की सेवा में प्रार्थनाएँ करने लगे। स्वर्गलोक में देव पत्नियों तथा विद्याधर अपनी-अपनी पत्नियों के साथ नाचने लगे।
ऋषि, मुनि तथा देवता प्रसन्न होकर फूल बरसाने लगे। समट हल्की तरंगों की ध्वनि सुनाई दे रही थी और समुद्र के ऊपर आकाश जो मोहक गर्जना करने लगे थे। | जब ऐसा संयोग उपस्थित हो गया, तो घट-घट-वासी भगवान विष्ण रात में भगवान् के रूप में देवकी के समक्ष प्रकट हुए, जो एक देवी जैसी ल थीं। उस समय भगवान् विष्णु के प्राकट्य की तुलना रात्रि के समय पूर्व दिशा में उदित होने वाले पूर्ण चन्द्रमा से की जा सकती थी। यहाँ यह आपत्ति उठायी जा सकती है कि चूंकि भगवान् कृष्ण अष्टमी के दिन उत्पन्न हुए, अत: उस दिन पूर्ण चन्द्रमा उदय हो ही नहीं सकता। इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि भगवान कृष्ण उस वंश में उत्पन्न हुए, जो चन्द्रमा की वंश-परम्परा में था, अत: यद्यपि उस रात्रि को चन्द्रमा अधूरा था, किन्तु चन्द्रमा के वंश में ही भगवान् के जन्म लेने के कारण चन्द्रमा अत्यधिक प्रसन्न था, अत: भगवान् कृष्ण की कृपा से वह पूर्ण चन्द्र के रूप में उदय हुआ।
खमानिक्य नामक ज्योतिष ग्रंथ में भगवान् कृष्ण के जन्म के समय नक्षत्रों का अत्यन्त सुन्दर वर्णन मिलता है। उससे पुष्टि होती है कि उस शुभ क्षण में उत्पन्न यह शिशु परम ब्रह्म या परम सत्य था। वसुदेव ने उस आश्चर्यजनक बालक को देखा जिसके चार हाथ थे, जिनमें वह शंख, चक्र, गदा तथा कमलपुष्प धारण किये था, जो श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित था, जो कौस्तुभ मणि की माला पहने था, पीताम्बर धारण किये चमकीले श्याम बादल की तरह लग रहा था, जिसका मुकुट वैदूर्य मणि से अलंकृत था, जो परे शरीर में अमूल्य बिजावट, कुंडल तथा अन्य आभूषण धारण किये था और जिसका सिर केशराशि से अलंकृत था। बालक के अद्वितीय रूप के कारण वसुदेव आश्चर्यचकित हो गए। नवजात शिशु इस तरह कैसे आभूषित हो सकता है? अत: वे समझ गये कि अब भगवान् कृष्ण प्रकट हो गए हैं और इस अवसर पर वे अभिभूत हो गये। वसुदेव ने विनीत भाव से आश्चर्य प्रकट किया कि यद्यपि वे भौतिक प्रकति द्वारा बद्ध सामान्य जीव हैं और ऊपर से कंस द्वारा बन्दी हैं, तो व्यापी भगवान् विष्णु या कृष्ण अपने मूल रूप में उनके घर शिशु रूप में ए हैं। कोई भी संसारी बालक आभूषणों एवं सुन्दर वस्त्रों से सज कर, चार सहित और भगवान् के समस्त चिह्नों से युक्त उत्पन्न नहीं होता। वसुदेव उस बालक को निहार रहे थे और विचार कर रहे थे कि इस शुभ वेला को रह मनायें। वे सोचने लगे, ‘‘सामान्यतया जब पुत्र उत्पन्न होता है, तो लोग अवसर पर खुशियाँ मनाते हैं और एक मैं हूँ कि मेरे बन्दी होते हुए भगवान् ने घर जन्म लिया है। मुझे तो इस शुभ उत्सव को बारम्बार मनाने के लिए तैयाररहना चाहिए।
जब वसुदेव ने, जिनका दूसरा नाम आनकदुन्दुभि है, अपने नवजात शिशु को देखा, तो वे इतने प्रसन्न हुए कि उनमें ब्राह्मणों को कई हजार गौएं दान देने की इच्छा प्रकट हुई। वैदिक प्रणाली के अनुसार जब भी क्षत्रिय राजमहल में कोई शुभ उत्सव मनाया जाता है, तो राजा प्रसन्नता के कारण अनेक वस्तुएँ दान में देता है। ब्राह्मणों तथा ऋषियों को स्वर्णाभूषणों से मण्डित गौएँ दी जाती हैं। वसुदेव कष्ण के अविर्भाव के उपलक्ष्य में एक दानोत्सव मनाना चाह रहे थे, किन्तु कंस के बंदीगृह में बन्द होने के कारण ऐसा करना दुष्कर था। अत: उन्होंने मन ही मन ब्राह्मणों को हजारों गौएँ दान की। | जब वसुदेव को विश्वास हो गया कि नवजात शिशु साक्षात् श्रीभगवान् है, तो वे दोनों हाथ जोड़ कर उसकी स्तुति करने लगे। उस समय वसुदेव दिव्य स्थिति में थे जिससे कंस से उत्पन्न उनका सारा भय जाता रहा। जिस कमरे में नवजात शिशु उत्पन्न हुआ था वह उसके तेज से देदीप्यमान था। | तब वसुदेव ने प्रार्थना करनी प्रारम्भ की, “हे भगवान्! मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं। आप समस्त जीवों के परमात्मा तथा परम सत्य श्रीभगवान् हैं। आप अपने ही शाश्वत रूप में प्रकट हुए हैं जिसका हम प्रत्यक्ष अवलोकन कर रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप मुझे कंस के भय से मुक्त करने के लिए प्रकट हुए हैं। आप इस भौतिक जगत से सम्बद्ध नहीं हैं; आप वही पुरुष हैं जिनकी भौतिक प्रकृति पर चितवन मात्र से यह दृश्य जगत उत्पन्न होता है।” | कोई यह तर्क कर सकता है कि अपनी चितवन मात्र से समस्त दृश्य जगत की उत्पत्ति करने वाला भगवान वसदेव की पत्नी देवकी के गर्भ में नहीं आ सकता है। इस तर्क का उच्छेद करने के लिए वसदेव ने कहा, “हे प्रभ। इसमें आश्चर्य नहीं कि आप देवकी के गर्भ में प्रकट हुए हैं, क्योंकि सृष्टि की। हई थी। आप महाविष्णु के रूप में कारणार्णव में शयन कर श्वास प्रक्रिया से अनेक ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हो गई थी। तब आप में गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रविष्ट हुए। फिर आपने क्षीरोट रूप में अपना विस्तार किया, और आप हर प्राणी के हृदय में , प्रविष्ट हो गये। अत: देवकी के गर्भ में आपका प्रवेश करना उसी जा सकता है। आप प्रविष्ट हुए प्रतीत होते हैं किन्तु उसी के सा सर्वव्यापक हैं। हम भौतिक उदाहरणों के माध्यम से आपके प्रवेश को समझ सकते हैं। सोलह तत्त्वों में विभाजित होने पर भी सम्पूर्ण भौति कायम रहती है। यह भौतिक शरीर पाँच स्थूल तत्त्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय आकाश-का संयोग मात्र है। जब भी कोई भौतिक शरीर बनता है, तो ऐसा लग है कि ये तत्त्व पुनः सृजित हो रहे हैं, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि सारे तत्त्व शरीर के बाहर हमेशा विद्यमान रहते हैं। इसी तरह यद्यपि आप देवकी के गर्भ में । शिशु रूप में प्रकट हुए हैं, किन्तु आप उसके बाहर भी विराजमान हैं। आप सदैव अपने धाम में रहते हैं, फिर भी आप करोड़ों रूपों में अपना विस्तार कर सकते हैं।
“मनुष्य को बहुत ही बुद्धि के साथ आपके अवतार को समझना चाहिए, धने क्षीरोदकशायी विष्णु के हृदय में, अणु के भीतर भी। उसी प्रकार से समझा भी के साथ-साथ आप पके प्रवेश तथा अप्रवेश क्योंकि आपसे भौतिक शक्ति भी उद्भूत है। आप भौतिक शक्ति के उसी प्रकार मूल स्रोत हैं जिस तरह प्रकाश का स्रोत सूर्य है। सूर्यप्रकाश सूर्यमण्डल को आच्छादित नहीं कर सकता, न आपसे उद्भूत होने के कारण भौतिक शक्ति आपको आच्छादित कर सकती है। आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों में रहते प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में ये तीनों गुण आपको आच्छादित नहीं कर सकते। इसे बड़े-बड़े बुद्धिमान दार्शनिक जानते हैं। दूसरे शब्दों में, यद्यपि आप भौतिक शक्ति के भीतर प्रतीत होते हैं, किन्तु आप उससे कभी आच्छादित नहीं होते।''
वेदों का कथन है कि परब्रह्म अपना तेज प्रकट करता है, जिसके फलस्वरूप प्रत्येक वस्तु प्रकाशित होती है। ब्रह्म-संहिता से पता चलता है कि ब्रह्मज्योति परमेश्वर के शरीर से उद्भूत होती है और इसी ब्रह्मज्योति से सारी सृष्टि उत्पन्न है। भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि भगवान् ही ब्रह्मज्योति के आधारस्वरूप हैं। अतः मूलतः वे ही प्रत्येक वस्तु के आदि कारण हैं, किन्तु अल्पज्ञ सोचते हैं कि जब भगवान् इस भौतिक जगत में आते हैं, तो वे भौतिक गुणों को ग्रहण कर लेते हैं। ऐसे निष्कर्ष बहुत प्रौढ़ नहीं हैं और केवल अल्पज्ञ द्वारा ही सृजित हैं।
श्री कृष्ण भगवान् प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में सर्वत्र विद्यमान हैं। वे इस सृष्टि के भी हैं और बाहर भी हैं। वे केवल इस सृष्टि में गर्भादकशायी विष्णु के रूप में * उहते, वे प्रत्येक परमाणु के भीतर भी हैं। परमाणु का अस्तित्व उनकी उपस्थिति ही है। उनसे कुछ भी विलग नहीं किया जा सकता। वैदिक सिद्धान्त के पार हमें परमात्मा अर्थात् प्रत्येक वस्तु के मूल कारण की खोज करनी चाहिए। क्योंकि परमात्मा से पृथक् कुछ भी नहीं है। अत: भौतिक सृष्टि उनकी शक्ति का पान्तर है। जड़ पदार्थ तथा जीवित शक्ति-आत्मा-भी उन्हीं से उद्भूत हैं। होगा वही इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि जब परमेश्वर प्रकट होते हैं, तो वे पदार्थ की परिस्थितियों को स्वीकार करते हैं। यदि प्रत्यक्ष रूप से वे भौतिक शरीर ग्रहण करते लगें भी, तो भी वे भौतिक परिस्थितियों के अधीन नहीं रहते। अत: कृष्ण अवतरित हुए और उन्होंने भगवान् के प्रकट तथा अप्रकट होने के समस्त दोषपूर्ण निष्कर्षों को ध्वस्त कर दिया है। ।
“हे स्वामी! आपका अवतार, स्थिति तथा तिरोधान सारे भौतिक गुणों के प्रभाव से परे हैं। चूँकि आप प्रत्येक वस्तु के नियामक तथा परब्रह्म हैं, अत: आपमें कछ भी अकल्पनीय या विरोधमूलक नहीं है। जैसा आपने कहा है, प्रकृति आपकी अध्यक्षता में उसी तरह कार्य करती है, जिस तरह कोई सरकारी अधिकारी मुख्य कार्यकारी के आदेशों पर काम करता है। अधीनस्थ कार्यकलापों का आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। चूंकि आप परब्रह्म हैं तथा सारे नियम आपमें अवस्थित हैं और प्रकृति के सारे कार्यकलाप आपके द्वारा ही संचालित होते हैं अतः इनमें से कोई कार्यकलाप आप पर प्रभाव नहीं डालता। | आप शुक्लम् कहलाते हैं। शुक्लम् अर्थात् धवल, परम सत्य का प्रतीकात्मक निरूपण है क्योंकि भौतिक गुणों से यह अप्रभावित रहता है। ब्रह्माजी रक्त अथवा लाल कहलाते हैं, क्योंकि सृजन के लिए वे रजोगुण का प्रतिनिधित्व करते हैं। तमस् शिवजी के जिम्मे पड़ा है, क्योंकि वे सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करते हैं। इस दृश्य जगत का सृजन, संहार तथा पालन आपकी शक्तियों द्वारा सम्पन्न होता है, तो भी आप इन गुणों से अप्रभावित रहते हैं। जैसाकि वेदों द्वारा पुष्ट किया गया है-हरिहिं निर्गुण:साक्षात्-श्रीभगवान् सदैव ही समस्त भौतिक गुणों से मुक्त होते है। यह भी कहा जाता है कि परमेश्वर में रजो तथा तमो गुणों का अभाव रहता है।
‘‘हे प्रभु! आप परम नियन्ता, भगवान् तथा इस दृश्य जगत की व्यवस्था को बनाये रखने वाले हैं। आप परम नियन्ता होते हुए भी कृपा करके मेरे घर में अवतरित हुए हैं। आपके अवतार का कारण संसार के उन आसुरी शक्तियों का वध करना है, जो राजकुमारों के वे हैं। मझे विश्वास है कि आप उन सबों को उनके अनुयायियों तथा सैनिक समेत मार डालेंगे।
" मझे विदित है कि आप दुष्ट कंस तथा उसके अनुयायी का वध करने के के लिए अवतरित हुए हैं। किन्तु यह जानकर कि उसने आपके कई अग्रज को मर डाला है। अब वह केवल आपके जन्म की प्रतीक्षा में है। जैसे ही व सुनेगा वह आपको मारने के लिए सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर उपश्थित हो जायेगा |
वसुदेव की इस प्रार्थना के बाद कृष्ण की माता देवकी ने प्रार्थना की। वे अपने भाई के अत्याचारों से अत्यन्त भयभीत थीं। देवकी ने कहा साहित्य में आपके अनेक शाश्वत अवतारों का मूल अवतारों के तौर पर है, यथा नारायण, राम, हयशीर्ष, वराह, नृसिंह, वामन, बलदेव तथा लि उद्भूत ऐसे लाखों अवतार। आप मूल अवतार हैं क्योंकि आपके अवतारों के रूप इस भौतिक सृष्टि से बाहर हैं। आपका स्वरूप इस दृश्य जगत की उत्पत्ति के पहले से उपस्थित था। आपके स्वरूप शाश्वत तथा सर्वव्यापी हैं। वे स्व-तेजोमय अपरिवर्तनीय तथा भौतिक गुणों से अकलुषित हैं। ऐसे शाश्वत रूप नित्य, ज्ञानमय तथा आनन्दमय हैं। वे सभी दिव्य सात्विकता से पूर्ण तथा विभिन्न लीलाओं में सदैव निरत रहने वाले हैं। आपका कोई एक ही विशेष रूप नहीं होता। ऐसे अनेक दिव्य रूप स्वतंत्र हैं। मैं जानती हैं कि आप परमेश्वर विष्ण हैं। “लाखों वर्षों बाद जब ब्रह्मा के जीवन का अन्त होता है, तो दृश्य जगत का विलय हो जाता है। उस समय पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश तत्त्व महत्-तत्त्व में प्रवेश कर जाते हैं। यह भौतिक शक्ति में प्रवेश करता है, समग्र भौतिक शक्ति प्रधान में और प्रधान है। यह महत्व : कालवश अप्रकट समग्र प्रवेश करता है। अतः सम्पूर्ण दृश्य जगत के संहार के पश्चात केवल आपका दिव्य नाम रूप, गण तथा साज-सामान ही शेष रह जाते हैं।
आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे उग्रसेन के पुत्र कंस के क्रूर हाथा बचायें। कृपा करके मुझे इस भयावह स्थिति से उबारें क्योंकि आप अपने वकों की रक्षा करने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं।'' भगवान् ने इस कथन की पुष्टि वदगीता में अर्जुन को आश्वस्त करते हुए की है, “तुम संसार को बता दो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।'' पकार रक्षा करने के लिए प्रार्थना करते हुए माता देवकी ने अपना वात्सल्य व्यक्त कियाः ‘‘मुझे ज्ञात है कि आपके इस दिव्य स्वरूप का दर्शन सामान्यतया ऋषिगण ध्यान में करते हैं, किन्तु मैं अभी भी डर रही हूँ कि ज्योंही कंस को पता चल जाएगा कि आपका जन्म हो चुका है, तो वह आपको हानि पहुँचा सकता । अत: मेरी प्रार्थना है कि आप इस समय हमारे भौतिक चक्षुओं से ओझल हो जए।'' दूसरे शब्दों में, उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि वे एक सामान्य बालक का रूप धारण कर लें। ‘‘आपके जन्म के कारण ही मैं अपने भाई कंस से भयभीत हैं। हे मधुसूदन! हो सकता है कि कंस को पता न लगे कि आपने जन्म धारण कर लिया है। अत: मेरी प्रार्थना है कि आप अपने इस चतुर्भुज रूप को, जिसमें आप विष्णु के चार चिह्न शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये हैं, छिपा लें। हे प्रभु!
आप दृश्य जगत के प्रलय के अन्त में सारे ब्रह्माण्ड को अपने उदर में धारण करते हैं फिर भी आप अपनी विशुद्ध कृपावश मेरे गर्भ में प्रकट हुए हैं। मुझे आश्चर्य है। कि आप अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए सामान्य मनुष्य के कार्यकलापों का अनुकरण करते हैं।' |
देवकी की प्रार्थना सुनकर भगवान् ने उत्तर दिया, “हे माता! स्वायंभुव मनु । के कल्प में मेरे पिता वसुदेव एक प्रजापति के रूप में थे जिसका नाम सुतपा था और आप उनकी पत्नी पृश्नि थीं। उस समय ब्रह्मा ने प्रजा बढ़ाने की इच्छा से आपसे सन्तान उत्पन्न करने के लिए कहा। आपने अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए कठोर तपस्या की। योग-पद्धति में प्राणायाम का अभ्यास करते हुए आप पति-पत्नी दोनों ने वर्षा, वायु, कड़कती धूप जैसे भौतिक नियमों के सारे प्रभावों को सहन किया। आपने समस्त धार्मिक नियमों का भी पालन किया। इस प्रकार आपका हृदय निर्मल हो गया और भौतिक नियम के प्रभावों पर भी नियंत्रण प्राप्त हो गया। तपस्या करते हुए आप वृक्षों के नीचे भूमि पर गिरी हुई पत्तियों मात्र का आहार करती रहीं। तब स्थिर मन तथा इन्द्रिय-निग्रह द्वारा आपने मुझसे अद्भुत वर करने के लिए मेरी पूजा की। आप दोनों ने देवताओं की गणना के अनुसार उस अवधि में आपका मन मुझमें ही मझमें ही लीन निरन्तर मेरा ध्यान कर रही थीं। पाता। अत: आपका अन्त:करण व में आपकी इच्छापूर्ति ने के लिए कहा था। उसे य हैं। यद्यपि आपने मेरा उभाव के कारण व्यापक १२.००० वर्षों तक कठोर तपस्या की। उस अवधि में । रहा। जब आप भक्ति कर रही थीं और अपने मन में निरन्तर से तब मैं आपसे अत्यधिक प्रसन्न हुआ। हे निष्पाप माता। अतःही विशद्ध है। उस समय भी मैं आपके समक्ष इसी रूप में आप के लिए प्रकट हुआ था और आपसे मनवांछित वर माँगने के लिये समय आपने चाहा था कि मैं आपके पुत्र रूप में जन्म लें। यद्यपि साक्षात् दर्शन किया था, तथापि आपने मेरी माया के प्रभाव के का भवबंधन से पूर्ण मुक्ति न माँग कर मुझे अपने पुत्र के रूप में माँगा था।
दूसरे शब्दों में, भगवान् ने प्रकट होने के लिए इस जगत में पृश्नि तथा को अपने माता-पिता के रूप में चुना। जब भी भगवान् मनुष्य रूप में अव होते हैं, उन्हें माता-पिता की आवश्यकता होती है; फलतः उन्होंने पृश्नि तथा सुतपा को शाश्वत माता-पिता के रूप में चुना; इसलिए पृश्नि तथा सुतपा दोनों ही मुक्ति की याचना न कर सके। मुक्ति उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं होती जितनी कि भगवान की दिव्य प्रेमा-भक्ति होती है। भगवान् चाहते तो पृश्नि तथा सुतपा को तुरन्त मुक्ति प्रदान कर सकते थे, किन्तु अपने विभिन्न अवतारों के लिए उन्हें इसी भौतिक जगत में बनाये रखना श्रेयस्कर समझा, जैसाकि आगे वर्णन किया जाएगा। भगवान् से उनके माता-पिता बनने का वर प्राप्त करके पृश्नि तथा सुतपा दोनों अपनी तपस्या छोड़ कर घर चले आये और पति-पत्नी के रूप में रहने लगे जिससे वे साक्षात् परमेश्वर को पुत्र रूप में उत्पन्न कर सकें। |
कालक्रम से पृश्नि गर्भवती हुई और एक शिशु को जन्म दिया। भगवान् ने वसुदेव तथा देवकी से कहाः “उस समय मेरा नाम पृश्निगर्भ था। अगले कल्प में आपने अदिति तथा कश्यप के रूप में जन्म लिया और तब मैं उपेन्द्र नाम से आपका पुत्र बना। उस समय मेरा स्वरूप एक बौने जैसे था जिससे मैं वामनदेव के नाम से विख्यात हुआ। मैंने आपको वर दिया था कि मैं तीन बार आपके पुत्र रूप में जन्म धारण करूंगा। पहली बार मैं पृश्नि तथा सुतपा से जन्म लेकर पृश्निगर्भ कहलाया, दूसरी बार मैं अदिति तथा कश्यप से जन्म लेकर उपेन्द्र कहलाया और अब तीसरी बार मैं देवकी तथा वसुदेव से कृष्ण नाम से उत्पन्न हुआ हूँ। मैं इस विष्णु रूप में इसलिए अवतरित हुआ हूँ कि आपको विश्वास दिला सकें कि उसी श्रीभगवान ने पुन: जन्म धारण किया है। मैं चाहता तो एक सामान्य शिशु के रूप में प्रकट हो सकता था, किन्तु तब आपको विश्वास न होता कि आपके गर्भ से जन्म लिया है। हे मेरे माता-पिता! इस तरह आपने कई बार अत्यन्त प्यार से अपने पुत्र के रूप में मुझे पाला-पोसा है, अत: मैं अत्यधिक प्रसन्न और आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि इस बार आप अपने को पूरा करके भगवद्धाम को वापस जाएँगे। मैं मानता हूँ कि आप मेरे लिए अन्तित हैं और कंस से भयभीत हैं, अत: मेरा आदेश है कि आप तुरन्त ही मुझे कल ले चलें और यशोदा की नवजात कन्या से जो अभी-अभी उत्पन्न हुई है, मुझे बदल लें।'' अपने पिता माता से इस प्रकार कह कर उनकी उपस्थिति में भगवान् सामान्य बालक बन गये और मौन हो गये। |
भगवान् का आदेश पाकर वसुदेव अपने पुत्र को प्रसूतिगृह से बाहर ले जाने के लिए तैयार हो गए। ठीक उसी समय नन्द तथा यशोदा के एक कन्या उत्पन्न हुई थी। वह योगमाया थी, अर्थात् वह भगवान् की अन्तरंगा शक्ति थी। इस योगमाया के प्रभाव से कंस के महल के सारे निवासी और विशेष रूप से द्वारपाल गहरी नींद में सो गये और लौह शृङ्खलाओं से बन्द महल के सारे दरवाजे खुल गये। रात अत्यन्त अँधेरी थी, किन्तु ज्योंही वसुदेव कृष्ण को अपनी गोद में लेकर बाहर निकले, तो उन्हें सब कुछ दिखने लगा मानो सूर्य का प्रकाश हो।
चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि कृष्ण सूर्यप्रकाश के तुल्य हैं और जहाँ भी कृष्ण रहते हैं वहाँ अंधकार रूपी माया नहीं रह सकती। जब कृष्ण को वसुदेव ले जा रहे थे, तब रात्रि का अंधकार दूर हो गया। कारागार के सारे द्वार स्वत: खुल गये। साथ ही आकाश में गम्भीर गर्जना हुई और भीषण वृष्टि होने लगी। जब वसुदेव इस वर्षा में अपने पुत्र को जा रहे थे, तो भगवान् शेष ने नाग का रूप धारण करके वसुदेव के सिर के ऊपर अपने फन फैला दिये जिससे वृष्टि से उन्हें बाधान पहुँचे। वसुदेव यमुना के तट पर आये, तो देखा कि यमुना के जल में गरजती लहरें उठ रही हैं और सारा पाट फेनिल हो उठा है। इतने पर भी यमुना ने वसुदेव को नदी को पार करने के लिए मार्ग दे दिया, ठीक उस प्रकार जिस प्रकार सेतुबन्ध के समय हिन्द महासागर ने भगवान् रामचन्द्र को रास्ता दे दिया था। इस प्रकार वसुदेव ने यमुना पार की। उस पार वे नन्द महाराज के गोकुल स्थित निवास स्थान में गये जहाँ उन्होंने देखा कि सारे ग्वाले गहरी नींद में सोये हुए थे। इस अवसर का लाभ उठाकर वे यशोदा के घर में चुपके से घुस गये और बिना किसी कठिनाई के अपने पुत्र को रखकर बदले में यशोदा की नवजात पुत्री को उठा लाये। इस प्रकार के बाद वे पुन: कंस के चुपके से घर में घुस कर लड़के को लड़की से बदल लेने के बाद वे व कारागार में लौट आये तथा पुत्री को देवकी की गोद में रख दिया हथकडी-बेड़ियाँ पहन लीं जिससे कंस को यह पता न चल पाये कि इन घटनाएँ घट चुकी हैं। माता यशोदा समझती थीं कि उनके एक शिशु उत्पन्न हुआ है, किन्तु प्रस्त पीड़ा से थक जाने के कारण वे प्रगाढ़ निद्रा में थीं। जब वे जागीं, तो उन्हें याद न रहा कि उनके पुत्र हुआ है या पुत्री।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत ‘‘भगवान कृष्ण का जन्म” नामक तीसरे अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
Krishna Janmashtami for the year 2018 is celebrated on 2 September & 3rd September.
उस समय पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर-सभी दिशाओं में शान्ति और सम्पन्नता का वातावरण था। आकाश में शुभ नक्षत्र दिख रहे थे और पृथ्वी पर सभी नगरों तथा ग्रामों या गोचरों में तथा जन-जन के मन में सौभाग्य के लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे थे। नदियाँ जल से पूर्ण होकर प्रवाहित हो रही थीं और सरोवरों में सुन्दर कमल खिले हुए थे। जंगल सुन्दर पक्षियों एवं मोरों से पूर्ण थे। जंगल के सारे पक्षी मधुर वाणी में गाने लगे और मयूर मयूरियों के साथ नाचने लगे। वायु अपने साथ विविध पुष्पों की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द बहने लगी, जिसका सुखद स्पर्श मन को मोहने लगा था। जो ब्राह्मण अग्नि में यज्ञ करने के अभ्यस्त थे, उन्हें आहुति के लिए अपने अपने घर अत्यन्त सुहावने लगने लगे। आसुरी राजाओं के उत्पातों के कारण ब्राह्मणों के घरों में हवनादि यज्ञ लगभग बन्द हो चुके थे, किन्तु अब उन्हें शान्तिपूर्वक यज्ञादि करने के अवसर प्राप्त हो रहे थे। यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगने के कारण ब्राह्मण मनसा-वाचा-कर्मणा अत्यन्त दुखी थे, किन्तु कष्ण के जन्म के समय उन सबके मन स्वयमेव प्रसन्नता से पर्ण हो गये क्योंकि उन्हें आकाश में भगवान के जन्म लेने की घोषणा करने वाली दिव्य वाणी गंजरित होती सुनाई दे रही थी। और चारणलोक के में देवता अपनी-अपनी गन्धर्व और किन्नरलोक के वासी गाने लगे चरण लोक के वासी भगवान की सेवा में प्रार्थनाएँ करने लगे। स्वर्गलोक में देव पत्नियों तथा विद्याधर अपनी-अपनी पत्नियों के साथ नाचने लगे।
ऋषि, मुनि तथा देवता प्रसन्न होकर फूल बरसाने लगे। समट हल्की तरंगों की ध्वनि सुनाई दे रही थी और समुद्र के ऊपर आकाश जो मोहक गर्जना करने लगे थे। | जब ऐसा संयोग उपस्थित हो गया, तो घट-घट-वासी भगवान विष्ण रात में भगवान् के रूप में देवकी के समक्ष प्रकट हुए, जो एक देवी जैसी ल थीं। उस समय भगवान् विष्णु के प्राकट्य की तुलना रात्रि के समय पूर्व दिशा में उदित होने वाले पूर्ण चन्द्रमा से की जा सकती थी। यहाँ यह आपत्ति उठायी जा सकती है कि चूंकि भगवान् कृष्ण अष्टमी के दिन उत्पन्न हुए, अत: उस दिन पूर्ण चन्द्रमा उदय हो ही नहीं सकता। इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि भगवान कृष्ण उस वंश में उत्पन्न हुए, जो चन्द्रमा की वंश-परम्परा में था, अत: यद्यपि उस रात्रि को चन्द्रमा अधूरा था, किन्तु चन्द्रमा के वंश में ही भगवान् के जन्म लेने के कारण चन्द्रमा अत्यधिक प्रसन्न था, अत: भगवान् कृष्ण की कृपा से वह पूर्ण चन्द्र के रूप में उदय हुआ।
खमानिक्य नामक ज्योतिष ग्रंथ में भगवान् कृष्ण के जन्म के समय नक्षत्रों का अत्यन्त सुन्दर वर्णन मिलता है। उससे पुष्टि होती है कि उस शुभ क्षण में उत्पन्न यह शिशु परम ब्रह्म या परम सत्य था। वसुदेव ने उस आश्चर्यजनक बालक को देखा जिसके चार हाथ थे, जिनमें वह शंख, चक्र, गदा तथा कमलपुष्प धारण किये था, जो श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित था, जो कौस्तुभ मणि की माला पहने था, पीताम्बर धारण किये चमकीले श्याम बादल की तरह लग रहा था, जिसका मुकुट वैदूर्य मणि से अलंकृत था, जो परे शरीर में अमूल्य बिजावट, कुंडल तथा अन्य आभूषण धारण किये था और जिसका सिर केशराशि से अलंकृत था। बालक के अद्वितीय रूप के कारण वसुदेव आश्चर्यचकित हो गए। नवजात शिशु इस तरह कैसे आभूषित हो सकता है? अत: वे समझ गये कि अब भगवान् कृष्ण प्रकट हो गए हैं और इस अवसर पर वे अभिभूत हो गये। वसुदेव ने विनीत भाव से आश्चर्य प्रकट किया कि यद्यपि वे भौतिक प्रकति द्वारा बद्ध सामान्य जीव हैं और ऊपर से कंस द्वारा बन्दी हैं, तो व्यापी भगवान् विष्णु या कृष्ण अपने मूल रूप में उनके घर शिशु रूप में ए हैं। कोई भी संसारी बालक आभूषणों एवं सुन्दर वस्त्रों से सज कर, चार सहित और भगवान् के समस्त चिह्नों से युक्त उत्पन्न नहीं होता। वसुदेव उस बालक को निहार रहे थे और विचार कर रहे थे कि इस शुभ वेला को रह मनायें। वे सोचने लगे, ‘‘सामान्यतया जब पुत्र उत्पन्न होता है, तो लोग अवसर पर खुशियाँ मनाते हैं और एक मैं हूँ कि मेरे बन्दी होते हुए भगवान् ने घर जन्म लिया है। मुझे तो इस शुभ उत्सव को बारम्बार मनाने के लिए तैयाररहना चाहिए।
जब वसुदेव ने, जिनका दूसरा नाम आनकदुन्दुभि है, अपने नवजात शिशु को देखा, तो वे इतने प्रसन्न हुए कि उनमें ब्राह्मणों को कई हजार गौएं दान देने की इच्छा प्रकट हुई। वैदिक प्रणाली के अनुसार जब भी क्षत्रिय राजमहल में कोई शुभ उत्सव मनाया जाता है, तो राजा प्रसन्नता के कारण अनेक वस्तुएँ दान में देता है। ब्राह्मणों तथा ऋषियों को स्वर्णाभूषणों से मण्डित गौएँ दी जाती हैं। वसुदेव कष्ण के अविर्भाव के उपलक्ष्य में एक दानोत्सव मनाना चाह रहे थे, किन्तु कंस के बंदीगृह में बन्द होने के कारण ऐसा करना दुष्कर था। अत: उन्होंने मन ही मन ब्राह्मणों को हजारों गौएँ दान की। | जब वसुदेव को विश्वास हो गया कि नवजात शिशु साक्षात् श्रीभगवान् है, तो वे दोनों हाथ जोड़ कर उसकी स्तुति करने लगे। उस समय वसुदेव दिव्य स्थिति में थे जिससे कंस से उत्पन्न उनका सारा भय जाता रहा। जिस कमरे में नवजात शिशु उत्पन्न हुआ था वह उसके तेज से देदीप्यमान था। | तब वसुदेव ने प्रार्थना करनी प्रारम्भ की, “हे भगवान्! मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं। आप समस्त जीवों के परमात्मा तथा परम सत्य श्रीभगवान् हैं। आप अपने ही शाश्वत रूप में प्रकट हुए हैं जिसका हम प्रत्यक्ष अवलोकन कर रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप मुझे कंस के भय से मुक्त करने के लिए प्रकट हुए हैं। आप इस भौतिक जगत से सम्बद्ध नहीं हैं; आप वही पुरुष हैं जिनकी भौतिक प्रकृति पर चितवन मात्र से यह दृश्य जगत उत्पन्न होता है।” | कोई यह तर्क कर सकता है कि अपनी चितवन मात्र से समस्त दृश्य जगत की उत्पत्ति करने वाला भगवान वसदेव की पत्नी देवकी के गर्भ में नहीं आ सकता है। इस तर्क का उच्छेद करने के लिए वसदेव ने कहा, “हे प्रभ। इसमें आश्चर्य नहीं कि आप देवकी के गर्भ में प्रकट हुए हैं, क्योंकि सृष्टि की। हई थी। आप महाविष्णु के रूप में कारणार्णव में शयन कर श्वास प्रक्रिया से अनेक ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति हो गई थी। तब आप में गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रविष्ट हुए। फिर आपने क्षीरोट रूप में अपना विस्तार किया, और आप हर प्राणी के हृदय में , प्रविष्ट हो गये। अत: देवकी के गर्भ में आपका प्रवेश करना उसी जा सकता है। आप प्रविष्ट हुए प्रतीत होते हैं किन्तु उसी के सा सर्वव्यापक हैं। हम भौतिक उदाहरणों के माध्यम से आपके प्रवेश को समझ सकते हैं। सोलह तत्त्वों में विभाजित होने पर भी सम्पूर्ण भौति कायम रहती है। यह भौतिक शरीर पाँच स्थूल तत्त्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय आकाश-का संयोग मात्र है। जब भी कोई भौतिक शरीर बनता है, तो ऐसा लग है कि ये तत्त्व पुनः सृजित हो रहे हैं, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि सारे तत्त्व शरीर के बाहर हमेशा विद्यमान रहते हैं। इसी तरह यद्यपि आप देवकी के गर्भ में । शिशु रूप में प्रकट हुए हैं, किन्तु आप उसके बाहर भी विराजमान हैं। आप सदैव अपने धाम में रहते हैं, फिर भी आप करोड़ों रूपों में अपना विस्तार कर सकते हैं।
“मनुष्य को बहुत ही बुद्धि के साथ आपके अवतार को समझना चाहिए, धने क्षीरोदकशायी विष्णु के हृदय में, अणु के भीतर भी। उसी प्रकार से समझा भी के साथ-साथ आप पके प्रवेश तथा अप्रवेश क्योंकि आपसे भौतिक शक्ति भी उद्भूत है। आप भौतिक शक्ति के उसी प्रकार मूल स्रोत हैं जिस तरह प्रकाश का स्रोत सूर्य है। सूर्यप्रकाश सूर्यमण्डल को आच्छादित नहीं कर सकता, न आपसे उद्भूत होने के कारण भौतिक शक्ति आपको आच्छादित कर सकती है। आप भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों में रहते प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में ये तीनों गुण आपको आच्छादित नहीं कर सकते। इसे बड़े-बड़े बुद्धिमान दार्शनिक जानते हैं। दूसरे शब्दों में, यद्यपि आप भौतिक शक्ति के भीतर प्रतीत होते हैं, किन्तु आप उससे कभी आच्छादित नहीं होते।''
वेदों का कथन है कि परब्रह्म अपना तेज प्रकट करता है, जिसके फलस्वरूप प्रत्येक वस्तु प्रकाशित होती है। ब्रह्म-संहिता से पता चलता है कि ब्रह्मज्योति परमेश्वर के शरीर से उद्भूत होती है और इसी ब्रह्मज्योति से सारी सृष्टि उत्पन्न है। भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि भगवान् ही ब्रह्मज्योति के आधारस्वरूप हैं। अतः मूलतः वे ही प्रत्येक वस्तु के आदि कारण हैं, किन्तु अल्पज्ञ सोचते हैं कि जब भगवान् इस भौतिक जगत में आते हैं, तो वे भौतिक गुणों को ग्रहण कर लेते हैं। ऐसे निष्कर्ष बहुत प्रौढ़ नहीं हैं और केवल अल्पज्ञ द्वारा ही सृजित हैं।
श्री कृष्ण भगवान् प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप में सर्वत्र विद्यमान हैं। वे इस सृष्टि के भी हैं और बाहर भी हैं। वे केवल इस सृष्टि में गर्भादकशायी विष्णु के रूप में * उहते, वे प्रत्येक परमाणु के भीतर भी हैं। परमाणु का अस्तित्व उनकी उपस्थिति ही है। उनसे कुछ भी विलग नहीं किया जा सकता। वैदिक सिद्धान्त के पार हमें परमात्मा अर्थात् प्रत्येक वस्तु के मूल कारण की खोज करनी चाहिए। क्योंकि परमात्मा से पृथक् कुछ भी नहीं है। अत: भौतिक सृष्टि उनकी शक्ति का पान्तर है। जड़ पदार्थ तथा जीवित शक्ति-आत्मा-भी उन्हीं से उद्भूत हैं। होगा वही इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि जब परमेश्वर प्रकट होते हैं, तो वे पदार्थ की परिस्थितियों को स्वीकार करते हैं। यदि प्रत्यक्ष रूप से वे भौतिक शरीर ग्रहण करते लगें भी, तो भी वे भौतिक परिस्थितियों के अधीन नहीं रहते। अत: कृष्ण अवतरित हुए और उन्होंने भगवान् के प्रकट तथा अप्रकट होने के समस्त दोषपूर्ण निष्कर्षों को ध्वस्त कर दिया है। ।
“हे स्वामी! आपका अवतार, स्थिति तथा तिरोधान सारे भौतिक गुणों के प्रभाव से परे हैं। चूँकि आप प्रत्येक वस्तु के नियामक तथा परब्रह्म हैं, अत: आपमें कछ भी अकल्पनीय या विरोधमूलक नहीं है। जैसा आपने कहा है, प्रकृति आपकी अध्यक्षता में उसी तरह कार्य करती है, जिस तरह कोई सरकारी अधिकारी मुख्य कार्यकारी के आदेशों पर काम करता है। अधीनस्थ कार्यकलापों का आप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। चूंकि आप परब्रह्म हैं तथा सारे नियम आपमें अवस्थित हैं और प्रकृति के सारे कार्यकलाप आपके द्वारा ही संचालित होते हैं अतः इनमें से कोई कार्यकलाप आप पर प्रभाव नहीं डालता। | आप शुक्लम् कहलाते हैं। शुक्लम् अर्थात् धवल, परम सत्य का प्रतीकात्मक निरूपण है क्योंकि भौतिक गुणों से यह अप्रभावित रहता है। ब्रह्माजी रक्त अथवा लाल कहलाते हैं, क्योंकि सृजन के लिए वे रजोगुण का प्रतिनिधित्व करते हैं। तमस् शिवजी के जिम्मे पड़ा है, क्योंकि वे सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करते हैं। इस दृश्य जगत का सृजन, संहार तथा पालन आपकी शक्तियों द्वारा सम्पन्न होता है, तो भी आप इन गुणों से अप्रभावित रहते हैं। जैसाकि वेदों द्वारा पुष्ट किया गया है-हरिहिं निर्गुण:साक्षात्-श्रीभगवान् सदैव ही समस्त भौतिक गुणों से मुक्त होते है। यह भी कहा जाता है कि परमेश्वर में रजो तथा तमो गुणों का अभाव रहता है।
‘‘हे प्रभु! आप परम नियन्ता, भगवान् तथा इस दृश्य जगत की व्यवस्था को बनाये रखने वाले हैं। आप परम नियन्ता होते हुए भी कृपा करके मेरे घर में अवतरित हुए हैं। आपके अवतार का कारण संसार के उन आसुरी शक्तियों का वध करना है, जो राजकुमारों के वे हैं। मझे विश्वास है कि आप उन सबों को उनके अनुयायियों तथा सैनिक समेत मार डालेंगे।
" मझे विदित है कि आप दुष्ट कंस तथा उसके अनुयायी का वध करने के के लिए अवतरित हुए हैं। किन्तु यह जानकर कि उसने आपके कई अग्रज को मर डाला है। अब वह केवल आपके जन्म की प्रतीक्षा में है। जैसे ही व सुनेगा वह आपको मारने के लिए सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर उपश्थित हो जायेगा |
वसुदेव की इस प्रार्थना के बाद कृष्ण की माता देवकी ने प्रार्थना की। वे अपने भाई के अत्याचारों से अत्यन्त भयभीत थीं। देवकी ने कहा साहित्य में आपके अनेक शाश्वत अवतारों का मूल अवतारों के तौर पर है, यथा नारायण, राम, हयशीर्ष, वराह, नृसिंह, वामन, बलदेव तथा लि उद्भूत ऐसे लाखों अवतार। आप मूल अवतार हैं क्योंकि आपके अवतारों के रूप इस भौतिक सृष्टि से बाहर हैं। आपका स्वरूप इस दृश्य जगत की उत्पत्ति के पहले से उपस्थित था। आपके स्वरूप शाश्वत तथा सर्वव्यापी हैं। वे स्व-तेजोमय अपरिवर्तनीय तथा भौतिक गुणों से अकलुषित हैं। ऐसे शाश्वत रूप नित्य, ज्ञानमय तथा आनन्दमय हैं। वे सभी दिव्य सात्विकता से पूर्ण तथा विभिन्न लीलाओं में सदैव निरत रहने वाले हैं। आपका कोई एक ही विशेष रूप नहीं होता। ऐसे अनेक दिव्य रूप स्वतंत्र हैं। मैं जानती हैं कि आप परमेश्वर विष्ण हैं। “लाखों वर्षों बाद जब ब्रह्मा के जीवन का अन्त होता है, तो दृश्य जगत का विलय हो जाता है। उस समय पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश तत्त्व महत्-तत्त्व में प्रवेश कर जाते हैं। यह भौतिक शक्ति में प्रवेश करता है, समग्र भौतिक शक्ति प्रधान में और प्रधान है। यह महत्व : कालवश अप्रकट समग्र प्रवेश करता है। अतः सम्पूर्ण दृश्य जगत के संहार के पश्चात केवल आपका दिव्य नाम रूप, गण तथा साज-सामान ही शेष रह जाते हैं।
आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे उग्रसेन के पुत्र कंस के क्रूर हाथा बचायें। कृपा करके मुझे इस भयावह स्थिति से उबारें क्योंकि आप अपने वकों की रक्षा करने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं।'' भगवान् ने इस कथन की पुष्टि वदगीता में अर्जुन को आश्वस्त करते हुए की है, “तुम संसार को बता दो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।'' पकार रक्षा करने के लिए प्रार्थना करते हुए माता देवकी ने अपना वात्सल्य व्यक्त कियाः ‘‘मुझे ज्ञात है कि आपके इस दिव्य स्वरूप का दर्शन सामान्यतया ऋषिगण ध्यान में करते हैं, किन्तु मैं अभी भी डर रही हूँ कि ज्योंही कंस को पता चल जाएगा कि आपका जन्म हो चुका है, तो वह आपको हानि पहुँचा सकता । अत: मेरी प्रार्थना है कि आप इस समय हमारे भौतिक चक्षुओं से ओझल हो जए।'' दूसरे शब्दों में, उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि वे एक सामान्य बालक का रूप धारण कर लें। ‘‘आपके जन्म के कारण ही मैं अपने भाई कंस से भयभीत हैं। हे मधुसूदन! हो सकता है कि कंस को पता न लगे कि आपने जन्म धारण कर लिया है। अत: मेरी प्रार्थना है कि आप अपने इस चतुर्भुज रूप को, जिसमें आप विष्णु के चार चिह्न शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये हैं, छिपा लें। हे प्रभु!
आप दृश्य जगत के प्रलय के अन्त में सारे ब्रह्माण्ड को अपने उदर में धारण करते हैं फिर भी आप अपनी विशुद्ध कृपावश मेरे गर्भ में प्रकट हुए हैं। मुझे आश्चर्य है। कि आप अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए सामान्य मनुष्य के कार्यकलापों का अनुकरण करते हैं।' |
देवकी की प्रार्थना सुनकर भगवान् ने उत्तर दिया, “हे माता! स्वायंभुव मनु । के कल्प में मेरे पिता वसुदेव एक प्रजापति के रूप में थे जिसका नाम सुतपा था और आप उनकी पत्नी पृश्नि थीं। उस समय ब्रह्मा ने प्रजा बढ़ाने की इच्छा से आपसे सन्तान उत्पन्न करने के लिए कहा। आपने अपनी इन्द्रियों को वश में करते हुए कठोर तपस्या की। योग-पद्धति में प्राणायाम का अभ्यास करते हुए आप पति-पत्नी दोनों ने वर्षा, वायु, कड़कती धूप जैसे भौतिक नियमों के सारे प्रभावों को सहन किया। आपने समस्त धार्मिक नियमों का भी पालन किया। इस प्रकार आपका हृदय निर्मल हो गया और भौतिक नियम के प्रभावों पर भी नियंत्रण प्राप्त हो गया। तपस्या करते हुए आप वृक्षों के नीचे भूमि पर गिरी हुई पत्तियों मात्र का आहार करती रहीं। तब स्थिर मन तथा इन्द्रिय-निग्रह द्वारा आपने मुझसे अद्भुत वर करने के लिए मेरी पूजा की। आप दोनों ने देवताओं की गणना के अनुसार उस अवधि में आपका मन मुझमें ही मझमें ही लीन निरन्तर मेरा ध्यान कर रही थीं। पाता। अत: आपका अन्त:करण व में आपकी इच्छापूर्ति ने के लिए कहा था। उसे य हैं। यद्यपि आपने मेरा उभाव के कारण व्यापक १२.००० वर्षों तक कठोर तपस्या की। उस अवधि में । रहा। जब आप भक्ति कर रही थीं और अपने मन में निरन्तर से तब मैं आपसे अत्यधिक प्रसन्न हुआ। हे निष्पाप माता। अतःही विशद्ध है। उस समय भी मैं आपके समक्ष इसी रूप में आप के लिए प्रकट हुआ था और आपसे मनवांछित वर माँगने के लिये समय आपने चाहा था कि मैं आपके पुत्र रूप में जन्म लें। यद्यपि साक्षात् दर्शन किया था, तथापि आपने मेरी माया के प्रभाव के का भवबंधन से पूर्ण मुक्ति न माँग कर मुझे अपने पुत्र के रूप में माँगा था।
दूसरे शब्दों में, भगवान् ने प्रकट होने के लिए इस जगत में पृश्नि तथा को अपने माता-पिता के रूप में चुना। जब भी भगवान् मनुष्य रूप में अव होते हैं, उन्हें माता-पिता की आवश्यकता होती है; फलतः उन्होंने पृश्नि तथा सुतपा को शाश्वत माता-पिता के रूप में चुना; इसलिए पृश्नि तथा सुतपा दोनों ही मुक्ति की याचना न कर सके। मुक्ति उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं होती जितनी कि भगवान की दिव्य प्रेमा-भक्ति होती है। भगवान् चाहते तो पृश्नि तथा सुतपा को तुरन्त मुक्ति प्रदान कर सकते थे, किन्तु अपने विभिन्न अवतारों के लिए उन्हें इसी भौतिक जगत में बनाये रखना श्रेयस्कर समझा, जैसाकि आगे वर्णन किया जाएगा। भगवान् से उनके माता-पिता बनने का वर प्राप्त करके पृश्नि तथा सुतपा दोनों अपनी तपस्या छोड़ कर घर चले आये और पति-पत्नी के रूप में रहने लगे जिससे वे साक्षात् परमेश्वर को पुत्र रूप में उत्पन्न कर सकें। |
कालक्रम से पृश्नि गर्भवती हुई और एक शिशु को जन्म दिया। भगवान् ने वसुदेव तथा देवकी से कहाः “उस समय मेरा नाम पृश्निगर्भ था। अगले कल्प में आपने अदिति तथा कश्यप के रूप में जन्म लिया और तब मैं उपेन्द्र नाम से आपका पुत्र बना। उस समय मेरा स्वरूप एक बौने जैसे था जिससे मैं वामनदेव के नाम से विख्यात हुआ। मैंने आपको वर दिया था कि मैं तीन बार आपके पुत्र रूप में जन्म धारण करूंगा। पहली बार मैं पृश्नि तथा सुतपा से जन्म लेकर पृश्निगर्भ कहलाया, दूसरी बार मैं अदिति तथा कश्यप से जन्म लेकर उपेन्द्र कहलाया और अब तीसरी बार मैं देवकी तथा वसुदेव से कृष्ण नाम से उत्पन्न हुआ हूँ। मैं इस विष्णु रूप में इसलिए अवतरित हुआ हूँ कि आपको विश्वास दिला सकें कि उसी श्रीभगवान ने पुन: जन्म धारण किया है। मैं चाहता तो एक सामान्य शिशु के रूप में प्रकट हो सकता था, किन्तु तब आपको विश्वास न होता कि आपके गर्भ से जन्म लिया है। हे मेरे माता-पिता! इस तरह आपने कई बार अत्यन्त प्यार से अपने पुत्र के रूप में मुझे पाला-पोसा है, अत: मैं अत्यधिक प्रसन्न और आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि इस बार आप अपने को पूरा करके भगवद्धाम को वापस जाएँगे। मैं मानता हूँ कि आप मेरे लिए अन्तित हैं और कंस से भयभीत हैं, अत: मेरा आदेश है कि आप तुरन्त ही मुझे कल ले चलें और यशोदा की नवजात कन्या से जो अभी-अभी उत्पन्न हुई है, मुझे बदल लें।'' अपने पिता माता से इस प्रकार कह कर उनकी उपस्थिति में भगवान् सामान्य बालक बन गये और मौन हो गये। |
भगवान् का आदेश पाकर वसुदेव अपने पुत्र को प्रसूतिगृह से बाहर ले जाने के लिए तैयार हो गए। ठीक उसी समय नन्द तथा यशोदा के एक कन्या उत्पन्न हुई थी। वह योगमाया थी, अर्थात् वह भगवान् की अन्तरंगा शक्ति थी। इस योगमाया के प्रभाव से कंस के महल के सारे निवासी और विशेष रूप से द्वारपाल गहरी नींद में सो गये और लौह शृङ्खलाओं से बन्द महल के सारे दरवाजे खुल गये। रात अत्यन्त अँधेरी थी, किन्तु ज्योंही वसुदेव कृष्ण को अपनी गोद में लेकर बाहर निकले, तो उन्हें सब कुछ दिखने लगा मानो सूर्य का प्रकाश हो।
चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि कृष्ण सूर्यप्रकाश के तुल्य हैं और जहाँ भी कृष्ण रहते हैं वहाँ अंधकार रूपी माया नहीं रह सकती। जब कृष्ण को वसुदेव ले जा रहे थे, तब रात्रि का अंधकार दूर हो गया। कारागार के सारे द्वार स्वत: खुल गये। साथ ही आकाश में गम्भीर गर्जना हुई और भीषण वृष्टि होने लगी। जब वसुदेव इस वर्षा में अपने पुत्र को जा रहे थे, तो भगवान् शेष ने नाग का रूप धारण करके वसुदेव के सिर के ऊपर अपने फन फैला दिये जिससे वृष्टि से उन्हें बाधान पहुँचे। वसुदेव यमुना के तट पर आये, तो देखा कि यमुना के जल में गरजती लहरें उठ रही हैं और सारा पाट फेनिल हो उठा है। इतने पर भी यमुना ने वसुदेव को नदी को पार करने के लिए मार्ग दे दिया, ठीक उस प्रकार जिस प्रकार सेतुबन्ध के समय हिन्द महासागर ने भगवान् रामचन्द्र को रास्ता दे दिया था। इस प्रकार वसुदेव ने यमुना पार की। उस पार वे नन्द महाराज के गोकुल स्थित निवास स्थान में गये जहाँ उन्होंने देखा कि सारे ग्वाले गहरी नींद में सोये हुए थे। इस अवसर का लाभ उठाकर वे यशोदा के घर में चुपके से घुस गये और बिना किसी कठिनाई के अपने पुत्र को रखकर बदले में यशोदा की नवजात पुत्री को उठा लाये। इस प्रकार के बाद वे पुन: कंस के चुपके से घर में घुस कर लड़के को लड़की से बदल लेने के बाद वे व कारागार में लौट आये तथा पुत्री को देवकी की गोद में रख दिया हथकडी-बेड़ियाँ पहन लीं जिससे कंस को यह पता न चल पाये कि इन घटनाएँ घट चुकी हैं। माता यशोदा समझती थीं कि उनके एक शिशु उत्पन्न हुआ है, किन्तु प्रस्त पीड़ा से थक जाने के कारण वे प्रगाढ़ निद्रा में थीं। जब वे जागीं, तो उन्हें याद न रहा कि उनके पुत्र हुआ है या पुत्री।
इस प्रकार लीला पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के अन्तर्गत ‘‘भगवान कृष्ण का जन्म” नामक तीसरे अध्याय का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ।
Krishna Janmashtami for the year 2018 is celebrated on 2 September & 3rd September.
Hii there
ReplyDeleteNice blog
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Shrinathji Temple