२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव ३७ ) श्री गुसाँईजी के सेवक गोपी नाथ दास ग्वाल की वार्ता
गोपीनाथ दास ग्वाल बन में गाय - भैंस चराते थे। एक दिन गोपीनाथ दास को वन में भूख लगी। श्रीनाथजी ने राजभोग की सामग्री में से आठ लड्डू लेकर वन में आकर गोपीनाथ दास ग्वाल को दिए। गोपीनाथ दास ने मन में विचार किया -"बिना श्री गुसाँईजी की आज्ञा के लडडू खाना उचित नहीं है। "उस ग्वाल ने लेकर वे लड़डू श्री गुसाँईजी को दिया ओर कहा - "श्रीनाथजी ने ये लडडू लाकर मुझे दिए दिए है। " श्री गुसाँईजी ने उसे आज्ञा की - "श्रीनाथजी ने तुम्हे लडडू दिए है , इन्हे तुम अवश्य ही खाओ। " गोपीनाथ दास ग्वाल श्री गुसांईजी की आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं करते थे। एक दिन बन में श्रीनाथजी ने गोपालदास भितरिया से कहा - "मुझे भूख लगी है। " तत्काल गोपालदास भितरिया ने श्रीगुसांईजी के पास पहुंचकर उनसे निवेदन कर दिया। तब श्रीगुसांईजी सब शीतल सामग्री तैयार करके वन में पधारे। धुप में तीक्ष्ण दहकता का अनुभव करते हुए गोपालदास ग्वाल ने श्री गुसाँईजी से विनती की - "महाराज , ऐसी धाम में क्यों पधारे हो ?" श्रीनाथजी तो बालक है , आप घाम के शीतल होने पर पधारते तो अच्छा रहता। किन्तु श्रीगुसांईजी ने तो तीक्ष्ण धाम में ही वन में पहुंचकर सामग्री अरोगाई थी। गोपीदास ग्वाल ने श्रीनाथजी से विनती की - "महाराज अपने ऐसी धाम में श्रीगुसांईजी से इतना श्रम क्यों कराया है ? आप आज्ञा करते तो बहुत सामग्री लेकर सेवक उपस्थित हो जाते। उस पर श्रीनाथजी ने आज्ञा की - "गोपालदास, इनके हाथ के बिना दूसरे के हाथ से आरोगते भी नहीं हूँ। " यह सुनकर गोपालदास चुप हो गए। इसी भाव से श्री रघुनाथजी ने श्रीगुसांईजी का नाम "नाम रतनख्या ग्रन्थ " में - "तान्निमंत्रण भोजक ", ऐसा वर्णन किया है। वे गोपालदास ग्वाल ऐसे कृपा पात्र थे , इनकी वार्ता कँहा तक लिखी जाए।
|| जय श्री कृष्ण ||
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