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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
११४)श्रीगुसांईजी
के सेवक कायस्थ पिता-पुत्र
की वार्ता
इन
पिता-पुत्रों
ने एक परगना इजारे लिया था अत:
इन
पर राजदार की बीस हजार रुपया
की देनदारी हो गई अत:
पातशाह
ने इनको बन्दी खाने में बन्द
क्र दिया |
इन्होंने
अपने पुरोहित को देश में
भेजा,ताकि
कुछ रुपया ला सके |
पुरोहित
ने इनके घर के सामान को बेचने
से दो हजार रूपये प्राप्त किए
और एक ब्राह्मण से कर्ज में
तीन हजार रूपये लिए|
इस
प्रकार पांच हजार रुपया लेकर
पुरोहित लौटा तो वे दोनों बड़े
निराश हुए |
इन्होंने
विचार किया कि इन पाँच हजार
रुपयों से हमारा छुटकारा तो
होगा नहीं अत:
घर
के माल असबाव को बेचने से
प्राप्त दो हजार रुपया तो
श्रीगुसांईजी को भेंट में
भेज दे और ब्राह्मण के कर्ज
के तीन हजार रूपये उसे लौटा
दिये जाएँ|
यह
सोचकर उन्होंने ऐसा ही किया
|
जब
श्रीगुसांईजी के पास दो पास
दो हजार रुपयों की भेंट पहुँची
तो उन्होंने पुरोहित से पूछा-
" दोनों
पिता-पुत्र
कहाँ हैं ?"
पुरोहित
ने सारा विवरण सुना दिया |
श्रीगुसांईजी
ने चाचा हरिवंशजी को बीरबल
के पास पत्र लेकर दिल्ली भेजा
|
चाचा
हरिवंशजी दिल्ली में बीरबल
के यहाँ उतरे |
एक
मनुष्य को पिता-पुत्रों
के पास भेजा उस मनुष्य के हस्ते
वह पत्र भी भेजा जो श्रीगुसांईजी
ने बीरबल को लिखा था |
उस
पत्र में श्रीगुसांईजी ने
बीरबल को लिखा था कि सम्बंधित
पिता-पुत्रों
को बन्दीखाने से मुक्त करा
दें |
ये
राज के बीस हजार चुकाएगे |
मैं
इनकी जमानत देता हूँ |
पिता
पुत्रों ने पत्र को पढ़ा और
श्रीगुसांईजी की जनामत वाले
पत्र को छुपा लिखा |
उन्होंने
उस व्यक्ति से कहा कि यह पुनः
मत ले जाओ |
चाचा
हरिवंशीजी पूछें तो उनसे कह
देना "पत्र
तो खो गया"
उस
मनुष्य ने ऐसा ही किया |
चाचा
हरिवंश ने मन में कहा -
" कोई
बात नहीं है,
श्रीगुसांईजी
के आशीर्वाद से बिना पत्र के
ही कार्य सिध्र होगा |"
चाचाजी
ने बीरबल से कहा -
" कायस्थ
पिता-पुत्रों
के बीस हजार के जमानत श्रीगुसांईजी
हैं,अत:
इन
दोनों को बन्दी खाने से मुक्त
करा दो |"
बीरबल
ने कहा -
" मेरे
पास जो कुछ भी है,वह
सब श्रीगुसांईजी की कृपा से
है अत:
इनके
बीस हजार रुपया की जामिनी मैं
स्वयं बनूँगा |"
यह
कहकर बीरबल ने बादशाह से कहकर
उनदोनों को मुक्त करा दिया |
वे
दोनों मुक्त होकर परगने में
चले गए |
उन्होंने
रुपया कमा कर उन्हें अदा कर
दिये |
ये
दोनों बाप-
बेटा
श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपा
पात्र थे,
जिनने
बन्दीखाने में रहना स्वीकार
किया,लेकिन
धर्म नहीं छोड़ा |
|जय
श्री कृष्णा|
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