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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
१२१)श्रीगुसांईजी के सेवक जाड़ा कृष्णदास की वार्ता
(प्रसंग-१)
उनको सभी वैष्णव चाचा जाड़ा कहते | वे
बहुत चतुर थे| सब
सन्त महंतो की परीक्षा लेते फिरते थे | एक दिन श्रीगोकुल में श्रीगुसांईजी की परीक्षा लेने को आए | उस समय
श्रीगुसांईजी श्रीनवनीतप्रियजी को झूला
झूला रहे थे | जाड़ा कृष्णदास ने दर्शन किए तो उन्हें
ऐसा लगा कभी तो श्रीगुसांईजी श्रीनवनीतप्रियजी को झुलाते हैं
और श्रीनवनीतप्रियजी श्रीगुसांईजी को झुलाते
हैं| जाड़ा
कृष्णदास देखकर चकित रह गए | उनके
मन में संदेह हुआ कि श्रीगुसांईजी और श्रीनवनीतप्रियजी में से श्रीठाकुरजी कौन है? श्रीगुसांईजी राजभोग धर कर बाहर पधारे तब जाड़ा कृष्णदास ने श्रीगुसांईजी
को दण्डवत करके विनती की -"मैं बहुत दुष्ट हूँ,आपकी परीक्षा लेने के लिए आया हूँ,लेकिन प्रभो,आपने
मेरी परीक्षा ली और मेरा संदेह दूर किया| अब आप मुझ को शरण में लो| श्रीगुसांईजी
ने कृपा करके नाम निवेदन कराया|
(प्रसंग-२)
फिर थोड़े दिन वहाँ रहने के बाद वृन्दावन में आए
और रूप सनातनजी को मिले| रूप
सनातन से कहा- "श्रीठाकुरजी क्या करते हैं?"
रूप सनातन ने कहा-
"श्रीठाकुरजी भोजन क्र रहे हैं?" तब जाड़ा कृष्णदास ने कहा-
"श्रीठाकुरजी की सभी लीलाएँ नित्य हैं,वे तो एक कालावच्छिन्न सब लीलाएँ क्र रहे
हैं| तुमने
केवल भिजन कर रहे हैं,ऐसा क्यों कहा? कारण
समजावें| इस पर
रूप सनातन ने कहा- " ऐसे दर्शन तो श्रीगोकुल में श्रीगुसांईजी के यहाँ होते
हैं?" जिनको श्रीगुसांईजी चाहें,उनको भी वैसे दर्शन करा सकते है| यह
सुनकर जाड़ा कृष्ण दास बहुत प्रसन्न हुए | ये जाड़ा कृष्णदास वर्ज में फिरा करते थे | वे
भगवद गुणानुवाद गाया करते थे | इन्होंने इन्द्रकोप,रास
पंचाध्यायी माधव रुक्मणी केलि,आदि को पदों में रचना कर गान किया| इन्होंने
कुछ भोजन सम्बंधित नवीन पद बनाकर गाए| जिन जिन उनका प्रसंग हुआ,उनके
मन की जड़ता समाप्त हो गई|
(प्रसंग-३)
एक दिन जाड़ा कृष्णदास द्वारिका की यात्रा करने
गए| रास्ते
में एक देवी के देवल में जाकर सो गए| प्रात:काल एक मनुष्य बकरा लेकर आया | जाड़ा
कुष्णदास ने कहा - " इस देवी पर सभी बकरा चढाते हैं,सिंह
क्यों नहीं चढाते हैं?" वह मनुष्य बोला- " सिंह को कैसे पकड़ा
जाए?" जाड़ा कृष्णदास ने कहा - "ले मैं तुजको सिंह पकड़कर देता
हूँ | तुम इस
बकरा को छोड़ दो | उसने बकरा को छोड़ दिया | जाड़ा
कृष्णदास जंगल जाकर सिंह को पकड़ लाए| सिंह को देखकर सब लोग भाग गए| वे जाड़ा कृष्णदास के पैरों में गिर पड़े| जाड़ा
कृष्णदास ने उनसे कहा- "आज के बाद
जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए वे पराक्रमी थे अत: उनकी कीर्ति जग में फेल गई थी| जाड़ा
कृष्णदास ऐसे पराक्रमी थे |
(प्रसंग-४)
पुन: एक दिन जाड़ा कृष्णदासजी चाचा हरिवंशजी से मिले| तब जाड़ा कृष्णदास ने पूछा- "इस
पुष्टिमार्ग में कौन से शास्त्र प्रमाण
वचन हैं?" तब चाचा
हरिवंशजी ने कहा- "पुष्टिमार्ग में
वेद और श्रीकृष्ण के वाकय,व्यास सूत्र एवं श्रीमद् भागवत| श्रीमद्
भागवत में तीन भाषा हैं- (१) लौकिक भाषा (२) स्मृतिभाषा और (३)समाधि भाषा | प्रकार
वेद और श्रीकृष्ण के वाक्य,व्यास सूत्र श्रीमद् भागवत
(समाधिभाषा) और धर्मशास्त्र ये प्रमाण हैं| इनसे मिलते- जुलते पुराण और स्मृति के वाक्य भी प्रमाण हैं जो इनसे विरुद्ध हैं, वह प्रमाण
नहीं हैं | श्रीमहाप्रभुजी
ने निबंध में कहा हैं-
"वेदा:
श्रीकृष्णवाकयानि व्यास सूत्राणि चैव हि |
समाधिभाषा व्यासस्य प्रमाण तच्चतुष्टयम ||
उत्तरं पूर्व संदेह वारकं परिकीर्तितम |
अविरुधं तु यत्त्वस्य प्रमाण तच्च नान्यथा
|
एतद विरुद्ध यत्सवं न तन्मानं कथंचन ||
पुन: जाड़ा कृष्णदास ने प्रश्न किया - उनके प्रकार के देवपूजन,और अनेक
प्रकार के व्रत एवं अनके प्रकार के शास्त्र
बहुत दिन से प्रमाण चले आ रहे हैं,सो उनके विचार का क्या करना हैं?" तब चाचा
हरिवंशजी ने कहा - " ये निर्णय तो श्रीमहाप्रभुजी ने "निबंध शास्त्रथ
में लिखा हैं-
श्लोक-
बुधावतारे त्वधुना हरौ तद वशगा: सूरा: |
नानामतानि विप्रेषु भूत्वा कुर्वन्ति
मोहनम ||
अयमेव महामोहो हीदमेव प्रतारणम |
यत्कृष्ण न भजेत् प्राज्ञ: शास्त्राभ्यास
पर:कृती|
तेशां कर्मवशानां हि भव एवं फलिश्यति ||"
इसका अर्थ है - जब श्रीठाकोरजी ने जीवों को मोह करने के लिए और अपने भजन से
विरत करने के लिए विचार किया तो बुधावतार लिया | श्रीठाकुरजी की ऐसी विपरीत इच्छा जानकर सब
देवताओं ने ब्राह्मणों के घर आकर जन्म लिया | अनेक मतों को चलाया और अनेक शास्त्र
वर्णित किए| उन्होंने
इस बात का ध्यान नहीं किया कि श्रीठाकोरजी मोह क्र रहे हैं और ठगाई करा रहे है| भुधिमानों
ने यह विचार ही नहीं किया| श्रीठाकोरजी की सेवा करना बन्द कर दिया| पण्डित
लोग कर्मवश हो गए ऐसी कर्म से अभिभूत लोगों को संसार ही फलित होता है? अन्य कोई फल नहीं होता है ? "यह सुनकर
जाड़ा कृष्णदास बहुत प्रसन्न हुए और कहने लगे- "आपके बिना मेरे संदेह को दूर
करने की सामर्थ्य किसी मैं भी नहीं हैं | लोग
जानते है कि श्रधा अनेक प्रकार लोगों के
प्रति होती है लेकिन सच्ची श्रधा कहाँ होती है? पुन:
जाड़ा कृष्णदास ने प्रश्न खड़ा क्र दिया तो चाचाजी ने निबंध का श्लोक कहा-
"ज्ञान
निष्ठा तदा ज्ञेया सर्वज्ञो हि यदा भवेत् |
कर्मनिष्ठा तदाज्ञेया यदा चित्तं प्रसीदति
||
भक्तिनिष्ठा तदा ज्ञेया यदा कृष्ण:
प्रसीदति |
निष्ठाभावे फलं तस्मान्नास्त्येवेति
विनिश्चय: ||"
अर्थ - ज्ञान निष्ठा सच्ची तब होती
है,जब
सर्वज्ञ होने का विश्वास होता है? कर्म
निष्ठा तभी मानी जाती है जब अनेक कष्ट
पड़ने पर भी कर्म में संल्लग्नता बनी रहे | कष्टों में भी चित्त में प्रसन्नता रहे | भक्ति
निष्ठा तब मानी जाती है जब श्रीठाकोरजी प्रसन्न हों ? निष्ठा
के बिना कोई भी फल नहीं होता हैं ? यह सुनकर जाड़ा कृष्णदास का मन बहुत
प्रसन्न हुआ | वे जीवन
पर्यन्त गोपालपुर में रहे और श्रीनाथजी की
सेवा करते रहे | वे
जाड़ा कृष्णदास श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपा पात्र थे |
| जय श्री
कृष्णा |
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