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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
११८)श्रीगुसांईजी
के सेवक चतुर बिहारी की वार्ता
चतुरबिहारी
ने श्रीगोकुल में आकर श्रीगुसांईजी
से प्राथना की -"
मुझे
अपनी शरण में लो|"
श्रीगुसांईजी
ने कृपा करके उसे नाम निवेदन
कराया|
उस
समय श्रीनवनीतप्रियजी के
राजभोग का समय था|
चतुर
बिहारी को लीला सहित दर्शन
हुए|
चतुर
बिहारी ने नया पद रच कर गाया-
"
किये
जो चटक मटक ठाडो रहत न घट पर "
यह
पद सुनकर श्रीगुसांईजी बहुत
प्रसन्न हुए|
श्रीगुसांईजी
ने जान लिया की श्रीनवनीतप्रियजी
ने इनको लीला का अनुभव कराया
है|
इसके
बाद चतुर बिहारी श्रीजी द्वार
में आए|
श्रीगुसांईजी
के संग श्रीनाथजी के दर्शन
किए|
उस
समय मंगला की बेला थी,
चतुर
बिहारी ने नये पद गाए|
फिर
राजभोग के समय श्रीनाथजी के
सन्निधान में नये पद गाए|
यथा-
पद
"
अनंत
न जइये हो पिये रहिये मेरे
मेहेल|"
यह
सुनकर श्रीगुसांईजी बहुत
प्रसन्न हुए|
श्रीगुसांईजी
पोढते थे तो चतुर बिहारी उनको
पंखा करते थे|
साथ
ही पद भी गाते थे|
ये
चतुर बिहारी श्रीगुसांईजी
के चरणारविन्दो की जन्मपर्यन्त
सेवा करते रहे|
|
जय
श्री कृष्णा |
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