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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव १२४)श्रीगुसांईजी
के सेवक छीतस्वामी चौबे की
वार्ता
(प्रसंग-१)
छीत
स्वामी मथुरा में रहते थे |
मथुरा
में पाँच चौबे बड़े गुण्डा थे
|
वे
सब ठगी करते थे |
उनमें
भी छीत-
चौबे
मुख्य थे |
एक
दिन उन सबने मिलकर विचार किया
कि जो भी कोई श्रीगोकुल में
जाता है वह श्रीविटठलनाथजी
के वश में हो जाता है |
ऐसा
प्रतीत होता है कि श्रीविटठलनाथजी
के पास कोई जादू-टोना
है |
परन्तु
उनका जादू -
टौना
यदि हमें वश में कर ले तो हम
जानें|
वे
पाँचो चौबे एक खोटा नारियल
और खोटा रुपया लेकर श्रीगोकुल
आए |
उनमें
से चार चौबे तो बाहर बैठ गए |
छीत
चौबे ने अंदर जाकर खोटा नारियल
और खोटा रुपया उनको भेंट किया
|
श्रीगुसांईजी
ने उसी समय खवास से कहा -
" जाओ
इस रुपया की तो बाजार से परचुनी
ले आओ और नारियल को फोड़कर लाओ
|'
खवास
तत्काल बाजार से रुपया को
चलाकर परचुरी लाया और नारियल
को फोड़कर उसकी श्वेत -
सुन्दर
गिरी निकालकर लाया |
छीत
स्वामी ने देखा तो उसके आश्चर्य
का ठिकाना नहीं रहा |
उसने
मन में विचार किया कि ये तो
साक्षात ईश्वर हैं |
तब
छीत स्वामी ने श्रीगुसांईजी
से कहा -
" महाराज,मुज
को अपनी शरण में लो |"
श्रीगुसांईजी
ने छीत स्वामी को नाम सुनाया
|
नाम
सुनने के पश्चात छीत स्वामी
श्रीनवनीतप्रियजी के दर्शन
करने के लिए अन्दर गए तो
श्रीविटठलनाथजी को अन्दर
बैठे देखा जब बाहर आए तो
श्रीविटठलनाथजी को अपने आसन
पर बैठे देखा |
छीत
स्वामी ने मन में विचार किया
कि श्रीनवनीतप्रियजी के आसन
पर श्रीगुसांईजी के दर्शन
हुए और नाम दाता के रूप में
श्रीगुसांईजी बाहर विराज कर
दर्शन दे रहे हैं |
ये
तो एक रूप हैं |
श्रीगुसांईजी
की इश्वरता को जीव नहीं जान
सकता है |
जो
चार चौबे बाहर बैठे थे,
उन्होंने
छीत स्वामी को बाहर बुलाया,तो
श्रीगुसांईजी ने छीत स्वामी
से कहा -
" तुम्हारे
चार साथी तुम्हें बाहर बुला
रहे हैं |"
छीत
चौबे ने बाहर जाकर अपने साथियों
से कहा -
"मुजको
तो श्रीगुसांईजी का टौंना लग
जाएगा |"
यह
सुनकर वे चारों चौबे भाग गए
|
इसके
बाद छीत स्वामी ने एक पद रचकर
गाया -
राग
नर -
भई
अब गिरिधर सों पहचान |
कपट
रूप धरि छलवे आयो पुरुषोत्तम
नहिं जान ||१||
छोटो
बड़ो कछू नहिं जान्यो छाय रह्यो
अज्ञान |
छीत
स्वामि देखत अपनायौ श्रीविटठल
कृपा निधान ||२||
ये
पद सुनकर श्रीगुसांईजी बहुत
प्रसन्न हुए |
छीत
स्वामी ण वहाँ रात्रि विश्राम
किया |
दूसरे
दिन श्रीगुसांईजी ने छीतस्वामी
को निवेदन कराया |
उस
समय छीत स्वामी को कोटि कन्दर्प
लावण्य पूर्ण पुरूषोत्तम के
दर्शन हुए और भगवल्लीला का
अनुभव हुआ |
श्रीगुसांईजी
और श्रीठाकुरजी के स्वरूप
में अभेद निश्चय हुआ |
"दोनों
स्वरूप एक ही हैं|"
यह
जानने लगे |
इसके
बाद छीतस्वामी गोपालपुर में
श्रीनाथजी के दर्शन के लिए
गये वहां श्रीनाथजी के पास
श्रीगुसांईजी के दर्शन हुए
|
छीतस्वामी
ने बाहर आकर लोगों से पूछा-
" श्रीगुसांईजी
यहाँ कब पधारे?"
उन
लोगों ने कहा -
" श्रीगुसांईजी
तो श्रीगोकुल में विराज रहे
हैं |
छीत
स्वामी वहाँ से श्रीगोकुल
में आए और वहाँ श्रीगुसांईजी
के दर्शन किए |
तब
छीत स्वामी को यह विश्वास हुआ
कि श्रीनाथजी एवं श्रीगुसांईजी
भी एक ही स्वरूप हैं |
तब
छीत स्वामी ने "
गिरिधरन
श्रीविटठल"
- छाप
के पद गाए छीत स्वामी ऐसे कृपा
पात्र भगवदीय थे |
(प्रसंग-२)
छीत
स्वामी,बीरबल
के पुरोहित थे अत:
वे
बीरबल के पास वसौधी लेने के
लिए गए |
सवेरे
के समय उन्होंने यह पद गाया
-
"
जे
वसुदेव किये पूरण तप सोई फल
फलित श्रीवल्लभ देह"
यह
पद सुनकर बीरबल ने कहा -
" मैं
तो वैष्णव हूँ,मैंने
तो यह पद सुन लिया और समज लिया
परन्तु यदि देशाधिपति सुनेंगे
और पूछेंगे तो क्या जवाब देओगे
|
वह
तो म्लेच्छ है|"
यह
सुनकर छीत स्वामी ने कहा -
"देशाधिपति
पूछेंगे तो मैं नीके जवाब
दूँगा |
परन्तु
मेरे मन से तो,
बीरबल,तू
ही म्लेच्छ है|
आज
के पीछे तेरा मुख नहीं देखूँगा
|
ऐसा
कहकर छीतस्वामी चले गए |
जब
यह बात देशाधिपति को ज्ञा हुई
तो उन्होंने बीरबल से पूछा -
"तुम्हारे
पुरोहित तुमसे क्यों रिसाय
गए?"
बीरबल
ने सब बात देशाधिपति के सम्मुख
सही बयान की और बोले-
" ये
तो ब्राह्मण हैं,वृथा
ही क्रोध (रिस)
बहुत
करते हैं|"
इस
पर दीक्षितजी ने मुझे आशीर्वाद
दिया मैने उन्हें एक मणि भेंट
की थी जो प्रतिदिन पाँच तोला
सोना देती थी,दीक्षितजी
ने उस मणि को श्रीयमुनाजी में
फेंक दिया |
जब
मेरे मन में क्रोधावेश आया
और मैने उनसे मणि पुन:
देने
को कहा तो उन्होंने श्रीयमुनाजी
में से खोंच भर कर मणियाँ निकाली
और मुझसे कहा -
" तुम्हारी
मणि इनमें से छाँट कर निकाल
लो |"
तब
हमको यह निश्चय हुआ कि ये
साक्षात ईश्वर के बिना ऐसा
चमत्कार नहीं हो सकता है |
अत:
तुम्हारे
पुरोहित की सब बातें सच हैं
|"
यह
सुनकर बीरबल बहुत खिस्याना
हुआ,वह
कुछ भी नहीं बोला |
यह
समाचार श्रीगुसांईजी के पास
पहुँचा |
उस
समय लाहौर से कुछ वैष्णव आये
हुए थे |
श्रीगुसांईजी
ने उनसे कहा -
" छीतस्वामी
की खबर लेते रहना |"
छीतस्वामी
को जब ज्ञात हुआ तो बोले -
"मैंने
वैष्णव धर्म विक्रय करने के
लिए नहीं लिया है |
मेरे
पास तो विश्रामघाट है श्रीयमुनाजी
की कृपा से सब योग-क्षेम
चलेगा |"
यह
सुनकर श्रीगुसांईजी बहुत
प्रसन्न हुए |
(प्रसंग-३)
एक
बार बीरबल,देशाधिपति
से आज्ञा लेकर जन्माष्टमी के
पर्व पर दर्शन करने के लिए
श्रीगोकुल में आए|
उनके
पीछे ही वेश बदलकर देशाधिपति
भी उनके पीछे -पीछे
पहुँच गए |
जन्माष्टमी
की भीड़ में श्रीगुसांईजी ने
देशाधिपति को पहचान लिया |
लेकिन
अन्य कोई भी नहीं जान सका |
छीतस्वामी
पद गा रहे थे श्रीगुसांईजी ,
श्रीनवनीतप्रियजी
को पालना जुला रहे थे |
उस
समय छीत स्वामी ने पद गाया-
प्रिय
नवनीत पालने जूलें श्रीविटठलनाथ
जुलावे हो |
कबहुँक आप
संग मिल जूले उतर जुलावै हो
||१||
कबहुँक
सुवरन खिलौना लै लै नाना भांति
खिलावै हो |
चकई
फिरकिनी ले विंगीटू जुण -जुण
हाथ बजावै हो ||२||
भोजन
करत थाल एक जारी दोऊ मिल खाय
खवावै हो |
गुप्त
महारस प्रकट जनावे प्रीति णई
उपजावै हों ||३||
धनि
धनि भाग्यदास निज जनके जिन
यह दर्शन पाए हो |
छीत
स्वामी गिरिधरन श्रीविटठल
निगम एक कर गाए हो ||४||
ऐसे
दर्शन छीत स्वामी के लिए हुए
और देशाधिपति को भी वैसे ही
दर्शन हुए |
अन्य
सभी लोगों को साधारण दर्शन
हुए|
जब
देशाधिपति चलने लगे तो
श्रीगुसांईजी ने उन्हें गुप्त
रीति से महाप्रसाद दिलाया |
देशाधिपति
उसी दिन आगरा आ गए |
बीरबल
भी दूसरे दिन आगरा पहुँचे |
देशाधिपति
ने बीरबल से पूछा -
"तुमने
क्या दर्शन किए?"
बीरबल
ने कहा -
" श्रीनवनीतप्रियजी
पालने में जूल रहें थे और
श्रीगुसांईजी जुला रहे थे |"
तब
देशाधिपति ने कहा -
" यह
बात झूँठी है?
सही
बात यह है कि श्रीगुसांईजी
पालना में झूल रहे थे और
श्रीनवनीतप्रियजी पालना जुला
रहे थे |
मुझे
तो इस रूप में दर्शन हुए है |
छीतस्वामी,जो
तुम्हारे पुरोहित हैं,वे
इस प्रकार कीर्तन का गान कर
रहे थे और मैं स्वयं तुम्हारे
पास खड़ा था |"
तब
बीरबल ने कहा -
"मुझको
इस प्रकार दर्शन क्यों नहीं
हुए?"
देशाधिपति
ने कहा -
"तुमको
अपने गुरु के स्वरूप का ज्ञान
नहीं है और तुम्हारे पुरोहित
छीतस्वामी जैसेन को इसका ज्ञान
है उनसे तुम्हारी प्रीति नहीं
है|
फिर
तुमको ऐसे दर्शन क्यों होते?"
वे
छीत स्वामी ऐसे कृपा पात्र
थे |
|
जय
श्री कृष्णा |
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