२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव २३१ ) श्री गुसाँईजी के सेवक नरसिंहदास की वार्ता
वह नरसिंह दास रस्ते में जा रहा था, उसे एक दिन भील मिला। भील का नियम था की वह राहगीरों को मरकर गांठड़ी ले लेता था। वह भील नरसिंह को मरने के लिए दौड़ा तो उसे उसका रूप नरसिंह का सा दिखाई दिया। भील उसे देखकर डर गया। नरसिंह बोला -"तू डरता क्यों हे , अब मेरे पास आ। "भील बोलै -"तुम नर हो या सिंह हो? मुझे सही रूप में ज्ञात नहीं हो रहा हे। " नरसिंह ने कहा -"मै तेरे जैसे लोगो को शिक्षा देने के लिए सिंह हूँ। अब तुजको नहीं छोडूँगा। ऐसा कहकर उसने एक थप्पड़ मरकर उसके हथियार चीन लिए। भील बोलै -"मेरे हथियार मुझे दे दो, में तुम्हे नहीं मारुंगा। "नरसिंह दास ने कहा - "तू अपने घर में जाकर पूछ तैने जीतनी हत्याए की है , उनका पाप किसके माथे पर है?" भील घर पूछने गया तो उसके घर वालों ने कहा -"हमारे माथे हत्या नहीं हे, हमने तुजे हत्या करने के लिए कब कहा था ?तुम्हे हमारा पोषण करना था, तुमने कैसे किया, यह तुम ही जानेो। " भील ने आकर नरसिंह को सब वृतांत सुना दिया तो नरसिंह ने भील से कहा -"तेरी हत्या में तेरे घर वाले शामिल नहीं हे तो तू हत्या क्यों करता है? तू मेरे साथ चल में तेरा कल्याण श्री प्रभुजी से कराऊंगा। यह कहकर नरसिंहदास भील को श्रीगुसांईजी गया। उसे श्री गुसाँईजी का सेवक करया। वह भील श्रीगुसांईजी का कृपा पात्र हुआ। वे नरसिंहदास श्री गुसाँईजी के ऐसे कृपा पात्र थे।
| जय श्री कृष्ण |
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