२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव १४६ ) श्री गुसाँईजी के सेवक की वार्ता जो राजनगर में रहते थे
राजनगर निवासी वैष्णव का नियम था - "दो चार वैष्णवों को प्रसाद लिवाकर स्वयं प्रसाद लेता था। यदि कोई वैष्णव प्रसाद लेने नहीं अता था तो दोनों स्त्री पुरुष प्रसाद नहीं लेते थे। एक बार यह वैष्णव प्रदेश गया और अपनी स्त्री को कह गया था की वैष्णवों को नित्य ही अवश्य प्रसाद लिवाय करना। जितने वैष्णवों को प्रसाद लिवाए , उतने पैसे इस गागर में डालते जाना। उस स्त्री ने ऐसा ही किया। कुछ दिन बाद वैष्णव प्रदेश से लौटा , तो उसने गागर के पैसे गिने। उसमे पांच मोहर देखने की मिली। वैष्णव ने अपनी पत्नी से मोहरों के बारे में पूछा तो उसने गागर में केवल पैसे डालने की बात को स्वीकार किया। मोहर उसमे नहीं डाली थी। कुछ दिन बाद श्रीगुसांईजी राजनगर पधारे तो उस वैष्णव ने उनको सारा वृतांत सुनाया। श्रीगुसांईजी ने उसकी शंका का समाधान करते हुए उसे संजय -"जिन वैष्णवों को तुम्हारी पत्नी ने प्रसाद लिवाया हे , उनमे पांच भागदीय तादृशी आए होंगे। अतः पैसे के स्थान पर पाँच रत्न हो गए। अतः जैसे भी बने प्रत्येक वैष्णव को वैष्णवों का आदर करना चाहिए। " श्री गुसाँईजी की आज्ञा को सुनकर वैष्णव बहुत प्रसन्न हुआ वह वैष्णव श्रीगुसांईजी का ऐसा कृपा पात्र था जिसका रत्नो के द्वारा वैष्णवों के स्वरुप का ज्ञान श्रीठाकुरजी कराया।
| जय श्री कृष्ण |
| जय श्री कृष्ण |
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