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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
९२)श्रीगुसांईजी
का सेवक एक विरक्त और आगरे के
सेठ की वार्ता
वह
विरक्त चुटकी माँगकर निर्वाह
करता था|
श्रीठाकुरजी
की सेवा भी भली भाँति करता था|
श्रीठाकुरजी
उस पर प्रसन्न भी बहुत रहते
थे|
एक
दिन उस विरक्त का एक सेठ से
मिलाप हुआ|
सेठ
ने उस विरक्त से कहा-"
तुम
श्रीठाकुरजी पधरा कर मेरे घर
पर रहो|
हम
तुम हिलमिलकर सेवा किया करेंगे|"
विरक्त
उस सेठ के घर में जाकर रहने
लगा|
बहार
से जो सामग्री वांछित होती
थी उसे विरक्त खरीद लाया करता
था|
एक
दिन बाजार में सर्वप्रथम नया
खरबूजा आया|
उस
विरक्त ने खरबूजा चाहा|
खरबूजे
वाले ने एक रुपया कीमत माँगी|
विरक्त
रुपया देने लगा|
उसी
समय अन्य ग्राहक ने सवा रुपया
लगाकर खरबूजा लेना चाहा|
वैष्णव
ने डेढ़ रुपया देना स्वीकार
किया|
लेकिन
दोनों खरीददारों में स्पर्धा
बढ़ने लगी|
खरबूजा
का भाव पॉँच-दस-बीस-तीस-सौ-पाँच
सो,
हजार
रुपया तक पहुँच गया|
उस
वैष्णव ने एक हजार रुपया में
खरबूजा खरीद लिया|
उसने
सेठ के यहाँ खर्च लिखाया तो
भी सेठ ने खरबूजा की कीमत एक
हजार रुपया के बारे में कुछ
नहीं पूछा|
सेठ
को विरक्त का पूर्ण विश्वास
था अतः उसके मन में कोई भी विकार
नहीं आया?
श्रीठाकुरजी
ने खरबूजा उठा लिया और सिंहासन
के ऊपर खेलने लगे|
जब
उत्थापन हुता तो खरबूजा को
सेठ ने श्रीठाकुरजी के पास
में देखा|
सेठ
बहुत प्रसन्न हुआ|
उसने
श्रीठाकुरजी से कहा-"
खरबूजा
मुझे देओ तो मै सँवार के भोग
धरुँ?"
श्रीठाकुरजी
ने कहा-"
यह
खरबूजा मै कल अरोगूंगा|
यह
खरबूजा मुझ को बहुत प्रिय है|
यह
सुनकर सेठ बहुत हुआ और उसने
विरक्त के साहस की प्रशंसा
की-"
खरबूजा
खरीदते समय कोई संकोच नहीं
किया|"
सेठ
ऐसा कृपा पात्र था जिसने एक
खरबूजा के हजार रूपा खर्च किये
तो भी उसने मन में दोष नहीं
हुआ|
।जय
श्री कृष्ण।
जय श्री कृष्णा। बलिहारी प्रभु। श्यामसुन्दर श्री यमुना महारानी की जय।महाप्रभुजी की जय।गोसाईं जी परम दयाल की जय।गुरूजी प्यारे की जय।
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