२५२ वैष्णवों की वार्ता
( वैष्णव ८५ ) श्री गुसांईजी के सेवक माधवदास भटट नागरा कायस्थ की वार्ता
माधवदास भटट जब श्रीगुसांईजी के सेवक हुए , तभी से उनका मन शान्त हुआ और भगवत सेवा में लीन रहने लगे | माधवदास के पिता अत्यधिक संसारासतत्क और विषयी थे | वे माधवदास से बहुत अप्रसन्न थे | उनके पास द्रव्य की कोई कमी नहीं थी लेकिन माधवदास को कुछ भी नहीं देते थे | वे सोचते थे कि माधवदास को यदि द्रव्य दे दिया जाएगा तो यह सभी द्रव्य को भगवत सेवा में लगा देगा | वे माधवदास की बहुत निन्दा करते थे | जब वे वृद्ध बहुत हो गए तो माधवदास ने उनसे कहा -" अब तो आपका समय तीर्थ यात्रा करने का है |" माधवदास के वचनो में प्रीति रखते हुए उनके पिता तीर्थ करने को चल दिए | जब मथुरा पहुँचे तो उनको चौबे मिले | चौबे लोगो ने कहा -" गुरुमुख हो जा |" तब उन्होंने विचार किया -" ये चौबे तो मेरे गुरु हुए | पर मेरा मन संसार के भोगो से अभी विरत नहीं हुआ है । मै तो माधवदास के गुरु की शरण में जाऊंगा , तभी मेरा मन निवृत होगा | यह विचार करके वे श्रीगोकुल चले गए | वहाँ जाकर श्रीगुसांईजी से विनती की -" मुझे अंगीकार करो |" तब श्रीगुसांईजी ने नाम निवेदन कराया | तब माधवदास के पिता ने श्रीगुसांईजी के साथ जाकर श्रीगोवर्धननाथजी के दर्शन किए और मन में ऐसी आई कि जब तक मेरा शरीर रहेगा , मै श्रीगुसांईजी के चर्णारविन्दो को नहीं छोड़ूंगा | उन्होंने माधवदास को पास बुला लिया और मन में कहने लगे -" मेरा जन्म धन्य है जो मेरे यहाँ माधवदास जैसे पुत्र ने जन्म लिया , जिसके प्रभाव से मुझे श्रीगुसांईजी के दर्शन प्राप्त हो सके सभी तीर्थ श्रीगुसांईजी के चरणो में विधमान है अतः अब कही भी तीर्थ करने नहीं जाऊँगा |" उन्होंने सारा द्रव्य माधवदास को सौप दिया | सो माधवदास ऐसे कृपापात्र भक्त थे जिनके प्रभाव से उनके पिता जो विषयासक्त थे , उनका मन विषयो से निकलकर प्रभु की और सन्मुख हो सका |
।जय श्री कृष्ण।
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