२५२
वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
७३)श्रीगुसांईजी
के सेवक जीवनदास ब्राह्मण की
वार्ता
जीवनदास
लाहौर के निवासी थे जो हरिद्वार
में श्रीगुसांईजी के सेवक
हुए|
श्रीठाकुरजी
की सेवा पधरा कर लाहौर चले गए|
वे
भगवत सेवा करते थे कही भी बाहर
नहीं जाते थे|
जातिभाई
उनकी वृथा निंदा करते थे|
बहुत
वर्ष पीछे जीवनदास की देह
छूटी|
लोगो
ने उसका अग्नि संस्कार किया|
उसका
अग्नि संस्कार जिस पेड़ के नीचे
किया था,
उस
पेड़ पर दो प्रेत रहते थे|
उन
दोनों में से अग्नि संस्कार
के समय एक ही प्रेत पेड़ पर था,
अन्य
प्रेत कही गया हुआ था|
जीवनदास
के शरीर के धूवे का स्पर्श कर
वह प्रेत योनि से छूटकर दिव्य
देह प्राप्त कर स्वर्ग चला
गया|
दूसरा
प्रेत आया तो उसे सारी जानकारी
प्राप्त हुई वह प्रेत हाय-हाय
करके रोने लगा|
उस
समय उस मार्ग से एक पण्डित जा
रहा था|
उस
प्रेत को रोते हुए देखकर पण्डित
ने पूछा-"
तू
कौन है और क्यों रोता है?"
उस
प्रेत ने कहा-"
हे
ब्राह्मण देव,
इस
पेड़ पर हम दो प्रेत रहते थे,
हम
में एक का उद्धार हो गया है
अतः में दुखी हूँ|"
उस
ब्राह्मण ने पूछा-"
तुझे
कैसे मालुम है कि उसका उद्धार
हो गया है|
उसका
उद्धार इस चिता की अग्नि का
धूआं लगने से ही हुआ है,
यह
कैसे मालुम हुआ|"
उस
प्रेत ने कहा-"
ब्राह्मण
देव,
तुम
इस चिता में दो चार लकड़ी डाल
दो,
धूआं
उठेगा तो मुझे भी लगेगा,
हो
सकता है,
मेरा
भी उद्धार हो जाए|"
उस
ब्राह्मण ने वैसा ही किया|
प्रेत
तो दिव्य देह धारण कर जीवनदास
की स्तुति करते हुए स्वर्ग
में चला गया|
उस
ब्राह्मण को बड़ा विस्मय हुए
उस ब्राह्मण ने आकर गॉव में
जानकारी ली कि आज कोन मरा था?
उसे
ज्ञात हुआ कि वैष्णव धर्म के
अनुयायी जीवनदास का निधन हुआ
है|
अब तो
वह ब्राह्मण भी अपने सम्पूर्ण
परिवार को लेकर श्रीगोकुल
में जाकर श्रीगुसांईजी का
शिष्य हुआ|
वह
जीवनदास श्रीगुसांईजी का ऐसा
कृपा पात्र था कि जिसकी चिता
के धूँआ लगने से प्रेतों का
उद्धार हो गया|
।जय श्री
कृष्ण।
0 comments:
Post a Comment