२५२
वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव १३२)श्रीगुसांईजी
के सेवक पूर्वदेश के राजा की
वार्ता
यह
राजा अन्य मार्गी था|
इस
के देश में जो भी वैष्णव रहते
थे, यह
उनकी निंदा किया करता था|
वह
कहता था की वैष्णव मार्ग में
पहले वैष्ण्वो को खिलाया जाता
है और बाद में स्वयं खाता है|
इस
प्रकार इस मार्ग में लोग दूसरों
की जूठन खाते है। वैष्णव
उच्छिष्ट भोजि होते है। इस
प्रकार वैष्ण्वो की निंदा
करता था|
श्रीठाकुरजी
वैष्ण्वो की निंदा सहन नहीं
कर सकते|
अंत:
राजा
को कुष्ठ हो गया|
जैसे
वह वैष्ण्वो की निन्दा करता,
उसका
कुष्ठ बढ़ता ही गया|
उसे
सारे शरीर में कुष्ठ बढ़ गया|
राजा
ने औषधि भी बहुत कराई|
कर्म
विपास देख कर प्रायश्चित भी
कराये|
लेकिन
उसका कुष्ठ दूर नहीं हुआ|
कुष्ठ
बढ़ता ही गया|
उस
राजा को वैष्ण्वो ने तीर्थयात्रा
करने की सलाह दी|
राजा
तीर्थयात्रा पर निकल गया|
तीर्थ
की मर्यादा के अनुसार दान-पुण्य
करते हुए तीर्थ यात्रा करता
रहा|
यात्रा
क्रम के यह श्रीगोकुल में आया|
श्रीगुसांईजी
के दर्शन के लिये और अपने कुष्ठ
के सम्बन्ध में उनको निवेदन
किया|
श्रीगुसांईजी
तो अन्तर्यामी थे। अंत:
वे
समाज गए कि इसने वैष्ण्वो की
निन्दा की है|
इसीलिए
इसको कुष्ठ हुआ है|
श्रीगुसांईजी
ने आज्ञा की -"
श्मशान
में हमारा सेवक बैठा है उसकी
जूठन खाओगे तो तुम्हारा कुष्ठ
दूर हो जाएगा|"
राजा
ने वैसा ही किया,
जूठन
लेते ही उसका कुष्ठ मिट गया|
जैसे
सूर्य उदय से रात्रि का अंधकार
मीट जाता है|
अमृत
पीने से मृत्यु का भय मिट जाता
है ज्ञान के होने से संसार मिट
जाता है|
भक्ति
के उदय से त्रिविध ताप मिट
जाते है,
वैसे
ही जूठन के खाते ही उसका कुष्ठ
मिट गया|
उसकी
देह निर्मल हो गई|
श्रीगोकुल
में आकर उसने श्रीगुसांईजी
की शरण ग्रहण की|
उसने
निवेदन किया -"
मेने
वैष्ण्वो की निन्दा बहुत की
है|"
श्रीगुसांईजी
ने कहा-
:वैष्ण्वो
से द्वेष करना बहुत बुरा है|
श्रीठाकुरजी
और श्रीमहाप्रभुजी वैष्ण्वो
के प्रति किये गए अपराध को
क्षमा नहीं करते है|
वैष्णव
का अपराध तो वैष्णव से ही क्षमा
होता है|
हमने
भी वैष्ण्व के पास भेजकर ही
तुम्हारा अपराध क्षमा कराया
है|
श्रीठाकुरजी
ने गीता में कहा है-
"
अपि
चेत सुदुराचारो भजते मामनन्य
भाक्|
साधुरेव
स मन्तव्य:
सम्यग्
व्यवहितो हि स:||"
इस
प्रकार से गीता में कहा गया
है -
जो
दुराचरणशील हो लेकिन मेरा
अनन्य भक्त हो,
उसको
साधु समजना चाहिए|
तुमने
ठीक ही निश्चय किया है,
वैष्ण्वो
की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए|
राजा
ने अपना अपराध क्षमा कराया|
वह
श्रीठाकुरजी पधराकर सेवा
करने लगा|
उस
राजा को सत्संग का रस समझ में
आने लगा|
भगवद्
भाव बढ़ने लगा। राजा के ऊपर
श्रीठाकुरजी प्रसन्न हुए|
श्रीगुसांईजी
की कृपा से उसे अपने अपराध का
अनुभव हुआ|
वह
राजा ऐसा कृपापात्र था।
|
जय
श्री कृष्णा |
0 comments:
Post a Comment