Friday, April 22, 2016

Shri Gusaiji Ke Sevak Purvadesh Ke Raja Ki Varta

२५२ वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव १३२)श्रीगुसांईजी के सेवक पूर्वदेश के राजा की वार्ता

यह राजा अन्य मार्गी था| इस के देश में जो भी वैष्णव रहते थे, यह उनकी निंदा किया करता था| वह कहता था की वैष्णव मार्ग में पहले वैष्ण्वो को खिलाया जाता है और बाद में स्वयं खाता है| इस प्रकार इस मार्ग में लोग दूसरों की जूठन खाते है। वैष्णव उच्छिष्ट भोजि होते है। इस प्रकार वैष्ण्वो की निंदा करता था| श्रीठाकुरजी वैष्ण्वो की निंदा सहन नहीं कर सकते| अंत: राजा को कुष्ठ हो गया| जैसे वह वैष्ण्वो की निन्दा करता, उसका कुष्ठ बढ़ता ही गया| उसे सारे शरीर में कुष्ठ बढ़ गया| राजा ने औषधि भी बहुत कराई| कर्म विपास देख कर प्रायश्चित भी कराये| लेकिन उसका कुष्ठ दूर नहीं हुआ| कुष्ठ बढ़ता ही गया| उस राजा को वैष्ण्वो ने तीर्थयात्रा करने की सलाह दी| राजा तीर्थयात्रा पर निकल गया| तीर्थ की मर्यादा के अनुसार दान-पुण्य करते हुए तीर्थ यात्रा करता रहा| यात्रा क्रम के यह श्रीगोकुल में आया| श्रीगुसांईजी के दर्शन के लिये और अपने कुष्ठ के सम्बन्ध में उनको निवेदन किया| श्रीगुसांईजी तो अन्तर्यामी थे। अंत: वे समाज गए कि इसने वैष्ण्वो की निन्दा की है| इसीलिए इसको कुष्ठ हुआ है| श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की -" श्मशान में हमारा सेवक बैठा है उसकी जूठन खाओगे तो तुम्हारा कुष्ठ दूर हो जाएगा|" राजा ने वैसा ही किया, जूठन लेते ही उसका कुष्ठ मिट गया| जैसे सूर्य उदय से रात्रि का अंधकार मीट जाता है| अमृत पीने से मृत्यु का भय मिट जाता है ज्ञान के होने से संसार मिट जाता है| भक्ति के उदय से त्रिविध ताप मिट जाते है, वैसे ही जूठन के खाते ही उसका कुष्ठ मिट गया| उसकी देह निर्मल हो गई| श्रीगोकुल में आकर उसने श्रीगुसांईजी की शरण ग्रहण की| उसने निवेदन किया -" मेने वैष्ण्वो की निन्दा बहुत की है|" श्रीगुसांईजी ने कहा- :वैष्ण्वो से द्वेष करना बहुत बुरा है| श्रीठाकुरजी और श्रीमहाप्रभुजी वैष्ण्वो के प्रति किये गए अपराध को क्षमा नहीं करते है| वैष्णव का अपराध तो वैष्णव से ही क्षमा होता है| हमने भी वैष्ण्व के पास भेजकर ही तुम्हारा अपराध क्षमा कराया है| श्रीठाकुरजी ने गीता में कहा है-
" अपि चेत सुदुराचारो भजते मामनन्य भाक्|
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग् व्यवहितो हि स:||"


इस प्रकार से गीता में कहा गया है - जो दुराचरणशील हो लेकिन मेरा अनन्य भक्त हो, उसको साधु समजना चाहिए| तुमने ठीक ही निश्चय किया है, वैष्ण्वो की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए| राजा ने अपना अपराध क्षमा कराया| वह श्रीठाकुरजी पधराकर सेवा करने लगा| उस राजा को सत्संग का रस समझ में आने लगा| भगवद् भाव बढ़ने लगा। राजा के ऊपर श्रीठाकुरजी प्रसन्न हुए| श्रीगुसांईजी की कृपा से उसे अपने अपराध का अनुभव हुआ| वह राजा ऐसा कृपापात्र था।
| जय श्री कृष्णा |



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