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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
१२७)श्रीगुसांईजी
के सेवक मुरारीदास की वार्ता
मुरारीदास
गौड़ देशा में नारायणदास के
पास नौकरी करने के लिए गए ।
नारायणदास ने मुरारीदास की
कर्मनिष्ठा देखकर उनको दस
रूपया मासिक वेतन देना स्वीकार
किया । मुरारीदास ने कहा -"मैं
आठ रूपया महीन लेना स्वीकार
करता हूँ क्योंकि मैं सवा
प्रहर दिन चढ़ जाने पर आऊँगा
और छ:
घड़ी
दिन शेष रहने पर चला जाऊँगा
।"
मुरारीदास
की यह बात नारायणदास को पसन्द
आई । मुरारी दास के माथे
श्रीबालकृष्णजी विराजते थे
। वे उन्हें सनुभाव जनाते थे
। बालक की तरह इच्छानुसार माँग
भी करते थे|
एक
दिन नारायणदास ने विचार किया
कि यह मुरारीदास प्रात:काल
देर में आता है और सायंकाल
जल्दी चला जाता है,
इसका
क्या कारण है?
यह
जानकारी लेने के लिए नारायणदास
उसके पीछे-पीछे
चुप-चाप
गए और उसके घर में छिपकर बैठ
गए । नारायणदास ने उसे सेवा
करते हुए देखा और श्रीठाकुरजी
से बातें करते देखा तथा वे
चुप-चुप
लौट गए|
दूसरे
दिन नारायणदास ने उससे कहा -
"हमने
तुम्हें श्रीबालकृष्णजी की
सेवा करते हुए कल देखा है,
तुम्हारी
सारी रीति और आचार से हम बहुत
प्रभावित हुए हैं अत:
तुम
हमें अपना सेवक बना लो|"
इस
पर मुरारीदास ने कहा -"हम
तो श्रीगुसांईजी के सेवक हैं;
यदि
आप चाहो तो हम श्रीगुसांईजी
से आपको सेवक करने के लिए विनय
करें ।"
नारायणदास
के स्वीकृति देने पर मुरारीदास
ने श्रीगुसांईजी को विनती-पत्र
लिखा |पत्र
लेकर नारायणदास अपनी स्त्री
सहित श्रीगुसांईजी की सेवा
में उपस्थित हुए और उनके सेवक
हुए । वे दोनों स्त्री-पुरूष
भगवत सेवा करने लग गए|
जिस
प्रकार मुरारीदास से श्रीठाकुरजी
बातें करते वैसे ही नारायणदास
से भी बातें करने लग गए|
मुरारीदास
ऐसे कृपा पात्र थे । जिनके संग
से नारायणदास भी वैष्णव हो
गए । अत:
संग
ऐसे का ही करना उचित है जिसके
संग से भगवत धर्म आवे |
|
जय
श्री कृष्णा |
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