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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
१२६)श्रीगुसांईजी
के सेवक मांट वन के एक राजपूत
की वार्ता
वह
राजपूत मांट वन से श्रीगोवर्धन
आया और मानसी गंगा में स्नान
किया |
मानसी
गंगा से चन्द्रसरोवर गया |
वहाँ
कुन्भनदासजी ने एक माली से
ॠतु में सर्व प्रथम आने वाले
आमों को दस रूपया में ठहरा कर
लिया है |
उन्होंने
आम चन्द्रसरोवर में धोये और
श्रीनाथजी को भोग रखा |
श्रीनाथजी
ने उनकी गोद में बैठकर आमों
को आरोगा |
इसके
बाद आमों को टोकरा में घरकर
माली से आमों का टोकरा उठवाया
| माली
ने कहा -
" चलो
दस रूपया देवें|"
फिर
विचार किया -
"दस
रूपया घर में तो है नहीं लेकिन
मैं भैंस और पाड़ी बेचकर तुम्हें
रूपया दूँगा |
अभी
किसी से उधार लेकर इसको रूपया
दे देता हूँ |"
यह
विचार करके माली को संग लेकर
चल दिये |
रास्ते
में राजपूत मिला |
उसने
कहा -
"माली
भाई,तुम
आमों का क्या लोगे ?"
कुन्भनदासजी
ने कहा -
" हमने
दस रूपया में ठहराये हैं,तुम्हें
चाहिए तो तुम ले लो |"
राजपूत
ने दस रूपया लेकर आमों को खरीद
लिया और कुम्भनदासजी का मनोरथ
सफल हो गया |
राजपूत
ने आमों को खाया तो खाते की
उसके सारे दोष निवृत्त हो गए
| उसका
चित्त भी पवित्र हो गया |
उसने
कुम्भनदासजी से पूछा -
"इस
संसार में भगवत प्राप्ति कैसे
होगी?"
कुम्भनदास
ने कहा -
" श्रीगुसांईजी
की शरण में जाने से भगवत प्राप्ति
होगी"
राजपूत
यह सुनकर गोपालपुर गया और
श्रीगुसांईजी का सेवक हो गया
| उसने
श्रीगोवर्धननाथजी के दर्शन
किए |
राजपूत
के मन में विचार अया कि श्रीनाथजी
को छोड़कर मुझे कहीं भी नहीं
जाना चाहिए |
उसने
श्रीगुसांईजी से सेवा बताने
की विनती की |
श्रीगुसांईजी
ने उससे कहा -
"तुम
हथियार बाँधकर घोड़े पर सवार
होकर श्रीनाथजी की गांयों के
साथ वन में जाया करो |
गायों
के जुंड में कभी कभी लियारी
(बाघ)
और
सिंह आता है जो गायों को मार
देता है उनसे गांयो की रक्षा
करो |
अनसखड़ी
महाप्रसाद साथ ले जाया करो |
वह
गांयो के साथ जाता,थोड़े
ही दिन बाद उसे श्रीनाथजी
दर्शन देने लग गए |
कभी
तो श्रीनाथजी उससे बोलते और
कभी उसके घोड़े पर सवार हो जाते
थे | इस
प्रकार श्रीनाथजी उसके साथ
अनेक प्रकार की क्रीड़ा करते
थे | एक
दिन राजपूत का बेटा उसे बुलाने
आया |
तब
उस राजपूत ने अपने बेटे से कहा
-
"तू
तो यह समज ले,
तेरा
बाप मर गया |
मैं
ऐसे मानूँगा -
" मेरे
बेटा पैदा ही नहीं हुआ |"
यह
कहकर उसने बेटा को वापस कर
दिया |
लेकिन
वह श्रीनाथजी के चरणारविन्दों
को छोड़कर कहीं भी नहीं गया |
इस
प्रकार कुम्भनदासजी की कृपा
से राजपूत श्रीगुसांईजी के
दढ सेवक हुए |
|
जय
श्री कृष्णा |
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