Monday, April 4, 2016

Shri Gusaiji Ke Sevak Mant Van Ke Ek Rajput Ki Varta

२५२ वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव १२६)श्रीगुसांईजी के सेवक मांट वन के एक राजपूत की वार्ता

वह राजपूत मांट वन से श्रीगोवर्धन आया और मानसी गंगा में स्नान किया | मानसी गंगा से चन्द्रसरोवर गया | वहाँ कुन्भनदासजी ने एक माली से ॠतु में सर्व प्रथम आने वाले आमों को दस रूपया में ठहरा कर लिया है | उन्होंने आम चन्द्रसरोवर में धोये और श्रीनाथजी को भोग रखा | श्रीनाथजी ने उनकी गोद में बैठकर आमों को आरोगा | इसके बाद आमों को टोकरा में घरकर माली से आमों का टोकरा उठवाया | माली ने कहा - " चलो दस रूपया देवें|" फिर विचार किया - "दस रूपया घर में तो है नहीं लेकिन मैं भैंस और पाड़ी बेचकर तुम्हें रूपया दूँगा | अभी किसी से उधार लेकर इसको रूपया दे देता हूँ |" यह विचार करके माली को संग लेकर चल दिये | रास्ते में राजपूत मिला | उसने कहा - "माली भाई,तुम आमों का क्या लोगे ?" कुन्भनदासजी ने कहा - " हमने दस रूपया में ठहराये हैं,तुम्हें चाहिए तो तुम ले लो |" राजपूत ने दस रूपया लेकर आमों को खरीद लिया और कुम्भनदासजी का मनोरथ सफल हो गया | राजपूत ने आमों को खाया तो खाते की उसके सारे दोष निवृत्त हो गए | उसका चित्त भी पवित्र हो गया | उसने कुम्भनदासजी से पूछा - "इस संसार में भगवत प्राप्ति कैसे होगी?" कुम्भनदास ने कहा - " श्रीगुसांईजी की शरण में जाने से भगवत प्राप्ति होगी" राजपूत यह सुनकर गोपालपुर गया और श्रीगुसांईजी का सेवक हो गया | उसने श्रीगोवर्धननाथजी के दर्शन किए | राजपूत के मन में विचार अया कि श्रीनाथजी को छोड़कर मुझे कहीं भी नहीं जाना चाहिए | उसने श्रीगुसांईजी से सेवा बताने की विनती की | श्रीगुसांईजी ने उससे कहा - "तुम हथियार बाँधकर घोड़े पर सवार होकर श्रीनाथजी की गांयों के साथ वन में जाया करो | गायों के जुंड में कभी कभी लियारी (बाघ) और सिंह आता है जो गायों को मार देता है उनसे गांयो की रक्षा करो | अनसखड़ी महाप्रसाद साथ ले जाया करो | वह गांयो के साथ जाता,थोड़े ही दिन बाद उसे श्रीनाथजी दर्शन देने लग गए | कभी तो श्रीनाथजी उससे बोलते और कभी उसके घोड़े पर सवार हो जाते थे | इस प्रकार श्रीनाथजी उसके साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ा करते थे | एक दिन राजपूत का बेटा उसे बुलाने आया | तब उस राजपूत ने अपने बेटे से कहा - "तू तो यह समज ले, तेरा बाप मर गया | मैं ऐसे मानूँगा - " मेरे बेटा पैदा ही नहीं हुआ |" यह कहकर उसने बेटा को वापस कर दिया | लेकिन वह श्रीनाथजी के चरणारविन्दों को छोड़कर कहीं भी नहीं गया | इस प्रकार कुम्भनदासजी की कृपा से राजपूत श्रीगुसांईजी के दढ सेवक हुए |
| जय श्री कृष्णा |





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