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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
१२८)श्रीगुसांईजी
के सेवक दया भवैया की वार्ता
वह
दया भवैया राजा से विदा होकर
जब अपने घर के लिए चलने लगा तो
मार्ग में विचार करता जा रहा
था कि वैष्णव का स्वाँग घरने
से जीवन की साधना सफल हो गई ।
राजा ने मेरा बहुत सम्मान किया
है । मैं धन्य हो गया । इसी बीच
उसका ध्यान पीछे गया तो उसने
देखा कि चार स्त्रियाँ उसके
पीछे संग लगी आ रही है । वह थोड़ा
ठहरा तो वे भी अपने स्थान पर
ठहर गई । वह चलने लगा तो वे भी
पीछे-पीछे
चलने लग गई । उसके मन में आश्चर्य
हुआ और सोचने लगा -
"ये
कौन हैं?
मेरे
पीछे पीछे क्यों चल रहीं हैं?"
उसने
खड़े होकर उन स्त्रियों से पूछा
-
" तुम
लोग कौन हो?
मेरे
पीछे -
पीछे
क्यों चल रही हो ?"
उन्होंने
कहा -
" हम
चार हत्याए हैं,
जो
तुम्हारे शरीर में सदा रहती
हैं|
जब
तू मरेगा तो तुजे नरक में ले
जाएँगी । तूने जब वैष्णव का
वेश धारण किया तो हम तेरे शरीर
से बाहर निकल आई हैं|
हम
वैष्णव से दूर रहती हैं । यदि
हम वैष्णव की द्रष्टि में आ
जाएँ तो भस्म हो जाँ ।"
यह
बात सुनकर दया भवैया लौटकर
राजा के भवन में जाकर उसके
चरणों में लेट गया । वह बोला
-
" मुझे
तो आप वास्तव में वैष्णव बना
लो । उसने हत्याओं के द्वारा
सुनाया गया सारा वृतान्त भी
राजा को सुना दिया । राजा ने
उठकर उन चारों स्त्रियों की
और देखा तो वे चारों भस्म हो
गई । राजा ने श्रीगुसांईजी
को पत्र लिखा और दया भवैया को
पत्र लेकर श्रीगुसांईजी के
पास अड़ेल भेजा । दया भवैया
श्रीगुसांईज के पास कुटुम्ब
जनों के साथ गया और कुटुम्ब
के साथ श्रीगुसांईजी का सेवक
हो गया । वह श्रीठाकुरजी को
पधरा कर सेवा करने लग गया ।
कितने ही दिनों तक वह अड़ेल में
रहा और पुष्टि रीति को सीखा
। इसके बाद वह भवैयाराजा के
पास आ गया की वैष्णव धर्म की
अपेक्षा अन्य धर्म तुच्छ है
। वैष्णव का मिथ्या स्वांग
धरने पर ही हत्या शरीर से बाहर
निकल गई,तो
सच्चा वैष्णव होने से तो
भगवल्लीला अवश्य ही प्राप्त
होगी । करते करते उसे भगवत
स्फूर्ति हुई और श्रीठाकुरजी
सानुभाव जताने लगे । इस प्रकार
दया भवैया राजा के संग से परम
भगवदीय हो गया |
|
जय
श्री कृष्णा |
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