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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
२८)श्रीगुसांईजी
के सेवक कान्हदास की वार्ता(
जो
गुजरात राजनगर में रहते थे)
एक
समय श्रीगुसांईजी राजनगर
पधारे थे|
उस
समय कान्हदास श्रीगुसांईजी
के सेवक हुए थे|
वे
श्रीठाकुरजी पधरा कर सेवा
करने लगे|
कान्हदास
की स्त्री और बेटा सब सेवा में
स्नान करते थे|
कान्हदास
के बेटा की बहू बहुत भोली थी|
वह
आचार विचार में भी बहुत कम
समझती थी|
इसलिए
उसको सेवा में नहाने नहीं देते
थे । वह बहू जो वैष्णव आते थे
उनकी जूठन को उठाती,
पोतना
करती,
वैष्णवो
के पाँव दबाती पंख करती,
उन्हें
स्नान कराती और उनके ठहरने
के स्थान पर बुहारी लगाती थी|
उस
बहू को ऐसे सेवा के काम में
लगाये रखते थे|
उसको
भोली समझकर श्रीठाकुरजी उससे
बातें करते थे|
उसे
सब प्रकार की लीला जनाते थे|
एक
दिन कान्हदास श्रीठाकुरजी
का श्रृंगार कर रहे थे|
उनके
मन में आई कि आज जूते (जोड़ा)
लाना
हैं ,
मोची
के घर जाना है,
वे
यह विचार कर ही रहे थे कि एक
व्यक्ति आया और उसने बेटा की
बहू से पूछा-"
तुम्हारा
ससुर कहा है?"
बहू
ने कहा-"
वे
तो मोची के घर जोड़ा लेने गए
हैं ।"
यह
बात सुनकर कान्हदास बाहर आए
और पुत्र वधु के पैरों पर गिर
पड़े|
वे
कहने लगे-"तैंने
वैष्णव की सेवा की है अतः
वैष्णवों के प्रभाव से तेरे
ह्दय में भगवद स्वरूप उदय हो
गया है इसलिए तू मेरे मन की
बात को जान गई|
श्रीठाकुरजी
तेरे ऊपर प्रसन्न है और में
बहुत मूर्ख हूँ,
मै
तेरे स्वरूप को जान नहीं पाया|
अब
तुम सेवा नित्य प्रति किया
करो|
तू
अपनी इच्छा के अनुसार श्रीठाकुरजी
को श्रृंगार धरना|
तेरी
इच्छा हो सो सामग्री धरना|"
उस
दिन से वह बहू सेवा में स्नान
करने लगी|
घर
के सभी लोग बहू को पूछकर सेवा
करने लगे|
कान्हदास
और उनके बेटा की बहू श्रीगुसांईजी
के ऐसे कृपा पात्र थे|
।जय
श्री कृष्ण।
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