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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
२६)श्रीगुसांईजी
के सेवक एक विरक्त वैष्णव की
वार्ता
वह
वैष्णव व्रज में पर्यटन करते
हुए चुकटी माँगकर निर्वाह
करता था|
एक
दिन कोकिला वन में रसोई की|
उस
दिन डोल-उत्सव
था|
सभी
लोग उत्सव को भूल गए थे|
जब
रसोई कर चुके,
तब
डोल उत्सव की स्मृति हुई|
सभी
को बड़ा पश्चाताप हुआ लेकिन
इस सबको भगवदिच्छा मानकर कुंज
की लता बाँधकर डोल किया और
श्रीठाकुरजी को झुलाया|
दाल-बाटी
बनाई थी अतः तीनों भोगों में
दाल-बाटी
समर्पित की|
इस
वैष्णव का ऐसा भाव देखकर
श्रीठाकुरजी बहुत प्रसन्न
हुए|
उन्होंने
प्रसन्नता श्रीगुसांईजी को
जताई|
श्रीगुसांईजी
ने उस वैष्णव के भाग्य की बहुत
सराहना की|
एक
दिन वही वैष्णव श्रीगुसांईजी
के यहाँ गया तो श्रीगुसांईजी
ने डोल के समाचारों से वैष्णव
को अवगत कराया|
उस
वैष्णव ने श्रीगुसांईजी से
निवेदन किया-"महाराज,
श्रीठाकुरजी
जो कुछ भी मानते हैं,
आपकी
कान(मर्यादा)
से
ही मानते है,
जीव
की कोई सामथ्य नहीं है|
सो
वे वैष्णव ऐसे कृपा पात्र थे
कि जिनके भाव से श्रीठाकुरजी
भी वश्य हो जाते है|
इस
वैष्णव के ऐसे पुनीत भाव की
चर्चा कहाँ तक की जाए जिन्हें
देखकर श्रीठाकुरजी भी प्रफुल्लित
रहते|
।जय
श्री कृष्ण।
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