Friday, April 24, 2015

Shri Gusaiji Ke Sevak Ek Virakt Vaishnav Ki Varta

२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव २६)श्रीगुसांईजी के सेवक एक विरक्त वैष्णव की वार्ता


वह वैष्णव व्रज में पर्यटन करते हुए चुकटी माँगकर निर्वाह करता था| एक दिन कोकिला वन में रसोई की| उस दिन डोल-उत्सव था| सभी लोग उत्सव को भूल गए थे| जब रसोई कर चुके, तब डोल उत्सव की स्मृति हुई| सभी को बड़ा पश्चाताप हुआ लेकिन इस सबको भगवदिच्छा मानकर कुंज की लता बाँधकर डोल किया और श्रीठाकुरजी को झुलाया| दाल-बाटी बनाई थी अतः तीनों भोगों में दाल-बाटी समर्पित की| इस वैष्णव का ऐसा भाव देखकर श्रीठाकुरजी बहुत प्रसन्न हुए| उन्होंने प्रसन्नता श्रीगुसांईजी को जताई| श्रीगुसांईजी ने उस वैष्णव के भाग्य की बहुत सराहना की| एक दिन वही वैष्णव श्रीगुसांईजी के यहाँ गया तो श्रीगुसांईजी ने डोल के समाचारों से वैष्णव को अवगत कराया| उस वैष्णव ने श्रीगुसांईजी से निवेदन किया-"महाराज, श्रीठाकुरजी जो कुछ भी मानते हैं, आपकी कान(मर्यादा) से ही मानते है, जीव की कोई सामथ्य नहीं है| सो वे वैष्णव ऐसे कृपा पात्र थे कि जिनके भाव से श्रीठाकुरजी भी वश्य हो जाते है| इस वैष्णव के ऐसे पुनीत भाव की चर्चा कहाँ तक की जाए जिन्हें देखकर श्रीठाकुरजी भी प्रफुल्लित रहते|
।जय श्री कृष्ण।


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