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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
-
२२)श्रीगुसांईजी
के सेवक एक विरत्त की वार्ता
इस
वैष्णव का श्रीगिरिराज की
नित्य परिक्रमा करने का नियम
था| नित्य परिक्रमा
करते हुए बहुत समय व्यतीत हुआ
तो एक दिन उसके मन में विचार
आया-"श्रीगुसांईजी
आज तक मुझसे बोले नहीं है|
यदि कभी मुझसे बोलें
तो मै धन्य होऊँ|" एक
दिन उस वैष्णव के पैर में ठोकर
लगी, तो वह परिक्रमा
करने नहीं गया| उस
दिन अन्नकूट का उत्सव था|
उस वैष्णव ने विचार
किया कि आज श्रीगुसांईजी इस
मार्ग से पधारेंगे तो उसने
उस मार्ग को साफ किया| मार्ग
से कंकड़ पत्थरों को भी बीनकर
मार्ग को सुन्दर बना दिया|"
इसके बाद वह श्रीगोवर्धननाथजी
के दर्शन करने गया और फिर उसने
श्रीगुसांईजी के दर्शन किए|
श्रीगुसांईजी ने उससे
कहा-" आओ वैष्णव
बैठो|" उस वैष्णव
ने आश्चर्य से श्रीगुसांईजी
से विनती की-" महाराज,
आज तक आप मुझसे कुछ भी
नहीं बोले| आपने आज
मुझ पर कृपा की है, इसका
क्या कारण है?" श्रीगुसांईजी
ने कहा-"आज ही प्रथम
बार तुम पुष्टिमार्ग के अनुसार
चले हो, इससे हमें
प्रसन्नता हुई है, अतः
हमने तुमसे बोलकर प्रसन्नता
की अभिव्यति की है|" उस
वैष्णव ने विनय पूर्वक कहा-"
मै तो नित्य श्रीगिरिराजजी
की परिक्रमा करता हूँ|"
श्रीगुसांईजी ने आज्ञा
की -" यह तो तेरे
देह का साधन है| आज
तो तूने श्रीठाकुरजी के सुख
का विचार किया है| पुष्टिमार्ग
में तो श्रीठाकुरजी सुखी हो,
वह कृति वैष्णव की
होनी चाहिए|" यह
सुनकर वैष्णव बहुत प्रसन्न
हुआ| वह सब साधन
छोड़कर सेवा करने लग गया| वह
वैष्णव ऐसा कृपा पात्र था|
।जय
श्री कृष्ण।
Jai jai shreevallabh
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