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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
-
२५)श्रीगुसांईजी
की सेवक बाई क्षत्राणी की
वार्ता
वह
क्षत्राणी भोली बहुत थी|
वह
श्रीठाकुरजी की सेवा भलीभाँति
से करती थी और श्रीठाकुरजी
भी उसे बालभाव जनाते थे|
कभी
उसकी छाती से लिपट जाते,
कभी
उसकी गोद में बैठ जाते और
घड़ी-घड़ी
में भूखा होकर खाने को मांगने
लग जाते|
वे
उस बाई को बहार नहीं जाने देते
थे|
जब
वह बाई बाहर जाती तो श्रीठाकुरजी
रुदन करने लग जाते|
इस
प्रकार बालभाव जनाते रहते
थे|
एक
दिन घर में बिल्ली लड़ने लगी,
तो
श्रीठाकुरजी ने उस बाई से कहा
-"
मुझे
बहुत डर लगता है|"
ऐसा
कहकर उस बाई से लिपट गए|
उस
बाई ने कहा-"तुमने
पूतना आदि दैत्य मारे थे तब
तो नहीं डरे अब क्यों डरते
हो?"
यह
सुनकर श्रीठाकुरजी ने उस बाई
से बोलना बंद कर दिया|
तीन
दिन तक कुछ भी नहीं बोले तो
बाई रोने लगी और बहुत प्रकार
से प्राथना करके उन्हें रिझाया
तो श्रीठाकुरजी पुनः बोलने
लगे|
अतः
वैष्णव को यह भाव नहीं रखना
चाहिए कि श्रीठाकुरजी को कोई
भूख -
प्यास
नहीं लगती है|
उन्हें
सर्व सामथ्यवान् समझकर जो
श्रीठाकुरजी की सेवा करता
है,
उसकी
सेवा तो निष्फल होती है|
श्रीमहाप्रभुजी
ने निबंध में कहा है- " माहात्म्य
ज्ञान पूवस्तु सुदढ़:
सर्वतोड़धिक:।
स्नेहो भतिरिति प्रोता तया
मुतिनचान्यथा||"इसका
आशय है कि माहात्म्य ज्ञान
पूर्वक सुदुढ़ सर्वाधिक स्नेह
श्रीठाकुरजी में रखना चाहिए|
जैसे
कोई राजा होता है तो उसकी माता
को तो ऐसा ही लगता है कि उसका
बेटा भूखा होगा|
मेरे
बेटे को ठण्ड लगती होगी|
इस
रीति से श्रीठाकुरजी के ऊपर
स्नेह रखना चाहिए|
सो
वह क्षत्राणी ऐसी कृपा पात्र
थी|
।जय
श्री कृष्ण।
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