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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
२७)श्रीगुसांईजी
के सेवक सूरतवासी कायस्थ की
वार्ता
मोतीराम
कायस्थ सूरत के सूबेदार की
नौकरी करता था|
वह
राजनगर में किसी कार्य से आया
था,
वहाँ
श्रीगुसांईजी का सेवक हुआ|
कुछ
दिन बाद वह सूरत के सूबेदार
के साथ आगरा गया था तो पृथ्वीपति
से मिला था|
उस
सूबेदार ने आगरा से लौटते समय
गोवर्धन में मुकाम किया तो
मोतीराम गोपालपुर में श्रीनाथजी
के दर्शनों के लिए गया तो वहाँ
राजभोग हो चुके थे|
उस
कायस्थ ने वहाँ श्रीगुसांईजी
के दर्शन किए|
उसने
विचार किया कि सूबेदार का तो
जल्दी ही प्रस्थान है अतः
श्रीनाथजी के दर्शन नहीं हो
पायेँगे|
वह
भण्डारी से मिला और बोला-"
में
साठ हजार रुपया की सेवा करूँगा
लेकिन उत्थापन के दर्शन दो
घडी पहले हो तो अधिक अच्छा
रहे|
भण्डारी
ने यह बात श्रीगुसांईजी से
निववेदन की|
श्रीगुसांईजी
ने दो घडी विलम्ब से उत्थापन
कराये|
मोतीराम
सूबेदार के साथ ही प्रस्थान
कर गया|
उसने
जाकर कुम्हेर में मुकाम किया|
मोतीराम
का मन उदास हो गया|
उस
सूबेदार ने मोतीराम से उदासी
का कारण पूछा|
मोतीराम
ने सारे समाचार कह दिये|
उसने
कहा-"
तू
दर्शनों के लिए साठ हजार रुपया
खर्च करने के लिए उधत था|
में
तेरे ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ
अतः तुम जाकर श्रीनाथजी के
दर्शन कर आओ|
मोतीराम
प्रातः काल श्रीनाथजी के दर्शन
के लिए गोपालपुर आया और उसने
राजभोग के दर्शन किये|
वह
श्रीनाथजी के दर्शन करके बहुत
प्रसन्न हुआ|
उसने
महाप्रसाद भी लिया|
अपने
भाग्य की सराहना की|
उसने
एक लाख रूपये का हिरा लेकर
श्रीनाथजी की चिबुक(ठोड़ी)
पर
आमरण कराया|
वह
मोतीराम वैष्णव श्रीगुसांईजी
का ऐसा कृपा पात्र था जिसकी
आरति को श्रीनाथजी सहन नहीं
कर सके|
उन्होंने
यह भी स्पष्ट कर दिया कि धन
से ही सब कार्य सिद्ध नहीं
होते है|
केवल
भगवत कृपा से ही सिद्धि होती
है|
वह
मोतीराम श्रीगुसांईजी का ऐसा
कृपा पात्र था|
।जय
श्री कृष्ण।
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