Thursday, April 16, 2015

Shri Gusaiji Ke Sevak Dhyandas aur Jagannathdas Ki Varta


२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव - २४)श्रीगुसांईजी के सेवक ध्यानदास और जगन्नाथदास की वार्ता



ध्यानदास श्रीगुसांईजी के पास आकर रहे थे और जगन्नाथ दास भी श्रीगुसांईजी के पास आकर रहे| जगन्नाथदास के हाथ में पदम का चिह्न था| वे जिस वस्तु में एक वस्तु निकालते थे उसमे एक बढ जाती थी| दो वस्तुऍ निकालते थे दो वस्तुऍ बढ़ जाती थी| कोई भी वस्तु कभी घटती नहीं थी| जगन्नाथदास इतने अधिक भोले थे कि उनको इस बात का आभास तक नहीं था| एक दिन श्रीगुसांईजी की भेट के पैसे जगन्नाथदास के पास रखे थे| माँगने के लिए बहुत भिखारी आए| जगन्नाथदास ने सभी के लिए पैसा- दो पैसा आदि निकाल निकाल कर दिये| ध्यानदास यह सब कुछ देख रहा था, उसने श्रीगुसांईजी से कहा-" महाराज, यह सभी याचकों को पैसा- दो पैसा देता रहता है| यह कहाँ से देता है?" श्रीगुसांईजी ने ध्यानदास को उत्तर दिया-" जो भी कोई सत्कर्म करना चाहता है, श्रीप्रभु सबका मनोरथ पूर्ण करते हैं| सत्कर्म करने वाले की सहायता श्रीप्रभु अवश्य करते है| उसके सत्कर्म की व्यवस्था श्रीप्रभु स्वयं करते हैं, उसे कुछ भी कार्य करना नहीं पड़ता है| उसकी व्यवस्था श्रीप्रभु पहले ही बनाकर रखते हैं| अतः व्यक्ति को कभी भी मन में अभाव नहीं लाना चाहिए| वैष्णव स्वयं ही निर्दोष होता हैं| उस में जो दोष लगता है, वह स्वयं ही दूषित हो जाता है| तुम तो स्वयं वैष्णव हो, तुम भी दोष रहित हो अतः किसी के ऊपर क्यों दोषारोपण करते हो?" यह सुनकर ध्यानदास बहुत प्रसन्न हुए| उन्होंने ऐसा नियम लिया कि भगवद ध्यान छोड़कर किसी के दोष नहीं देखूँगा | इसके बाद उन्होंने जीवन पर्यन्त किसी के दोष नहीं देखे| भगवद ध्यान करते रहे| वे ध्यानदास और जगन्नाथदास श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपा पात्र थे जिनको तुरन्त निर्दोष पन का ज्ञान हो गया, सो वे ऐसे वैष्णव थे|


।जय श्री कृष्ण। 
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