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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव-
१४२)श्रीगुसांईजी
के सेवक वेणीदास और दामोदरदास
की वार्ता
वेणीदास
और दामोदरदास दोनों भाई थे।
दोनों भाई राजनगर में कपडा
खरीदने गए थे। वहाँ से श्रीगुसांईजी
के सेवक हुए और श्रीगुसांईजी
को पधराकर सूरत गाँव में लाए।
वहाँ अपने सम्पूर्ण परिवार
को नाम निवेदन कराया। इसके
बाद समस्त कुटुम्बीजनों को
लेकर ब्रजयात्रा के लिए गए
और ब्रज में श्रीठाकुरजी
पधराकर सेवा करने लगे|
सम्पूर्ण
कुटुम्ब तो पुन:
देश
के लिए भेज दिया और स्वयं दोनों
भाई वही रह गए|
प्रात:
मध्यान्ह
और सायं समय श्रीगुसांईजी की
खवासी करते व रसोई करते एवं
श्रीठाकुरजी की सेवा करते
थे। एक दिन श्रीठाकुरजी ने
प्रशन्न होकर कहा-"
तुम
कुछ मांगो"
उन
भाइयो ने कहा-"
हरी-गुरु-वैष्णव
तीनो के प्रति हमारा समान रूप
से स्नेह और आदर भाव रहे तथा
हम तीनो दास बन कर रहे|
हमारी
आपसे यही याचना है।"
तब
श्रीठाकुरजी ने प्रसन्न होकर
आज्ञा दी-"
ऐसा
ही होगा|"
इस
प्रकार भाव पूर्ण ठंग से वहाँ
पाँच-सात
वर्ष रहे|
उधर
उनके बेटो को बहुत धन प्राप्त
हुआ|
अत:
वे
ब्रज में आए और दोनों भाइयो
को ब्रज से श्रीठाकुरजी सहित
सूरत में पधरा कर ले गए|
सभी
मिलकर सेवा करने लगे|
हरी-गुरु-वैष्णव
की सेवा सिद्ध होने लगी|
वे
दोनों भाई श्रीगुसांईजी के
ऐसे कृपापात्र थे। वे जो भी
मनोरथ करते थे श्रीठाकुरजी
से पूछकर ही करते थे। संसार
में आसक्त नहीं थे। श्रीगुसांईजी
के चरणारविन्दों में जितना
चित्त होता है,
उनके
भाग्य की बहुत बड़ाई होती है।
इनके भाग्य की सराहना हम कहा
तक करें|
|जय
श्री कृष्णा|
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