२५२ वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव-१४५)श्रीगुसांईजी
के सेवक लक्ष्मीदास जोशी की
वार्ता
लक्ष्मीदास
जोशी गुजरात में रहते थे।
श्रीगुसांईजी गुजरात पधारे
तो लक्ष्मीदास ने उनसे दर्शन
किए|
उन्हें
साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम
रूप में उनके दर्शन हुए|
लक्ष्मीदास
ने श्रीगुसांईजी से शरण में
लेने की प्रार्थना की|
श्रीगुसांईजी
ने कृपा करके उन्हें नाम निवेदन
कराया|
एक
दिन लक्ष्मीदास ने श्रीगुसांईजी
से पूछा-
" गुरु
को शिष्य का सूतक लगता है या
नहीं?"
श्रीगुसांईजी
ने आज्ञा की-"गुरु
शिष्य को आपस में सामान्य सूतक
है|
गुरु
तो एक है और शिष्य अनेक है|
यदि
गुरु इस प्रकार शिष्य का सूतक
पाले तो गुरु जीवन पर्यन्त
भगवत सेवा ही नहीं कर सकता है|
इसलिए
शास्त्र में अनेक प्रकार के
वचनो को विचारपूर्वक ही मानना
चाहिए|
जैसे
श्पर्शाश्पर्श में लिखा है
की छाछ कभी नहीं छूती है|
लेकिन
इन वचनो को इस प्रकार मानना
चाहिए -"क्षत्रिय,
वैश्य,शुद्र
और असत शुद् के बर्तन की और
इनके जल के श्पर्श की छाछ
स्वीकार्य नहीं है|
शास्त्र
में यह भी लिखा है की जो भी
वस्तुए तराजू में तूल जाती
है वे सब शुद्ध है। लेकिन इन
वचनो से भी अग्राह्य पदार्थ
ग्रहण करने योग्य नहीं है|
इसी
क्रम में सूतक के लिए भी ऋषियों
के अनेक वचन है,
उन
सभी को विचार पूर्वक ग्रहण
करना चाहिए या नहीं|"
श्रीगुसांईजी
ने आज्ञा की-
"श्रीमहाप्रभुजी
ने विरह दशा में ही त्याग करने
का निर्देश किया है। जब तक
भगवद विरह न हो और सन्यास लेता
है तो कलियुग में पश्चाताप
हो सकता है। अतयन्त विरह उत्पन्न
के बिना गृहस्थपने का त्याग
नहीं करना चाहिए|"
लक्ष्मीदास
ने पुन:
निवेदन
किया-"
महाराज,
मेरा
चित कही भी नहीं लगता है|"
तब
श्रीगुसांईजी के साथ श्रीगोकुल
गए|
वहाँ
श्रीनवनीतप्रियजी के दर्शन
किये|
श्रीनाथजी
के दर्शन किये|
वहाँ
उनका मन भगवत सेवा में बहुत
लगा|
श्रीेगुसांईजी
से मार्ग की रीती की शिक्षा
ग्रहण की|
श्रीठाकुरजी
पधारकर गुजरात से मार्ग करने
लगे|
वैष्णवो
का सतसंग भी किया|
लक्ष्मीदास
जोशी ने इस प्रकार भगवत सेवा
में अपना समय व्यतीत किया|
|जय
श्री कृष्णा|
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