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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
१०५ )श्रीगुसांईजी
के सेवक वेणीदास की वार्ता
वेणीदास
पूर्व देश वासी वैष्णव मण्डल
के साथ श्रीगोकुल में आए|
यहाँ
उन्होंने श्रीगुसांईजी के
दर्शन किए|
उन्हें
श्रीगुसांईजी के दर्शन कोटि
कन्दर्प लावण्य पूर्ण पुरषोत्तम
के रूप में हुए|
वेणीदास
ने विचार किया की इनके शरण में
जाने से बहुत अच्छा होगा । यह
विचार आते ही वे श्रीगुसांईजी
के सेवक हो गए|
उन्होंने
श्रीनवनीतप्रियजी की दर्शन
किये तो उन्हें भगवत स्वरूप
का ज्ञान हुआ|
जब
उन्होंने श्रीनाथजी के दर्शन
के दर्शन किए तो उन्हें
देहानुशंधान ही नहीं रहा|
उन्हें
दो घडी बाद देहानुशंधान हुआ,
तब
श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की -
" श्रीनाथजी
के दर्शन किए|"
वेणीदास
ने विनय पूर्वक निवेदन किया
- "
आपकी
कृपा से श्रीनाथजी ने मुझे
दर्शन दिए|
जीव
की सामथ्य कहाँ है कि वह श्रीनाथजी
के दर्शन कर सके|
श्रीनाथजी
आपके वश में है|
आपकी
इच्छा हो तो ही श्रीनाथजी
दर्शन देते है|"
वेणीदास
के विनय करने पर श्रीगुसांईजी
ने उनके लिए श्रीठाकुरजी की
सेवा पधराई|
वे
श्रीगुसांईजी के पास रहकर
पुष्टि मार्ग की रीति को सीख
सके|
एक
दिन वेणीदास श्रीगुसांईजी
से आज्ञा लेकर अपने देश के लिए
चल दिए|
रास्ते
में एक दिन बरसात बहुत पड़ी|
वे
गाँव में स्थान तलाशने के लिए
चले|
एक
बड़ी जगह पर वेणीदास उतरे|
वहाँ
उन्होंने श्रीठाकुरजी की
सेवा की और महाप्रसाद लिया|
रात्रि
के समय जब वेणीदास भगवतवार्ता
कर चुके तो उन्हने एक प्रेत
खड़ा हुआ दिखाई दिया|
वेणीदास
ने उससे पूछा -
" तुम
कौन हो?"
उसने
कहा -
" मै
यहाँ का प्रेत हूँ|
यहाँ
जो भी कोई आकर उतरता है,
वह
वापस लौटकर जीवित नहीं जाता
है|
परन्तु
तेरे ऊपर मेरा देव नहीं चल पा
रहा है|"
वेणीदास
को प्रेत पर दया आई ,
उसके
ऊपर जल के छींटे मारे तो उसकी
प्रेतयोनि छूट गई|
उसकी
दिव्य देह हो गई|
वेणीदास
से प्रेत ने हाथ जोड़कर कहा -
" तू
धन्य है,
तूने
मेरी प्रेत योनि छुड़ा दी है|
आब मै
तेरी कृपा से वैकुण्ठ में
जाऊँगा|
मेरी
प्रेतयोनि को छुड़ाने की किसी
में भी सामथ्य नहीं थी|
इतना
कहकर तथा वेणीदास को दण्डवत
करके वह प्रेत वैकुण्ठ में
चला गया|
वेणीदास
अपने देश में जाकर भलीभांति
से श्रीठाकुरजी की सेवा करने
लगे|
वेणीदास
श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपा
पात्र थे|
|जय
श्री कृष्णा|
जय श्री कृष्णा।यमुनाजी की जै।महाप्रभुजी प्यारे की जै।गोसाईं जी परम दयाल की जै।गुरदेवजी प्यारे की जै।
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