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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
१०६)श्रीगुसांईजी
के सेवक ध्यानदास और जगन्नाथदास
की वार्ता
ध्यानदास
श्रीगुसांईजी के पास आकर रहे
थे और जगन्नाथ दास भी श्रीगुसांईजी
के पास आकर रहे|
जगन्नाथ
दास के हाथ में पदम का चिन्ह
था|
वे
जिस वस्तु में एक वस्तु निकालते
थे उसमे एक बढ़ जाती थी|
दो
वस्तुऍ निकालते थे दो वस्तुऍ
बढ़ जाती थी|
कोई
भी वास्तु कभी घटती नहीं थी|
जगन्नाथ
दास इतने अधिक भोले थे कि उनको
इस बात का आभास तक नहीं था|
एक
दिन श्रीगुसाँजी की भेंट के
पैसे जगन्नाथदास के पास रखे
थे|
माँगने
के लिए बहुत भिखारी आए|
जगन्नाथदास
ने सभी के लिए पैसा -
दो
पैसा आदि निकाल निकाल कर दिये|
ध्यानदास
यह सब कुछ देख रहा था,
उसने
श्रीगुसांईजी से कहा-"
महाराज,
यह
सभी याचकों को पैसा दो पैसा
देता रहता है|
यह
कहाँ से देता है?"
श्रीगुसांईजी
ने ध्यानदास को उत्तर दिया -
" जो
भी कोई सत्कर्म करना चाहता
है ,
श्रीप्रभु
सबका मनोरथ पूर्ण करते है|
सत्कर्म
करने वाले की सहायता श्रीप्रभु
अवश्य करते है । उसके सत्कर्म
की व्यवस्था श्रीप्रभु स्वयं
करते है,
उसे
कुछ भी कार्य करना नहीं पड़ता
है|
उसकी
व्यवस्था श्रीप्रभु पहले ही
बनाकर रखते है । अतः व्यक्ति
को कभी भी मन में अभाव नहीं
लाना चाहिए|
वैष्णव
स्वयं ही निर्दोष होता है|
उस
में जो दोष लगता है ,
वह
स्वयं ही दूषित हो जाता है|
तुम
तो स्वयं वैष्णव हो ,
तुम
भी दोष रहित हो अतः किसी के
ऊपर क्यों दोषारोपण करते हो?"
यह
सुनकर ध्यानदास बहुत प्रसन्न
हुए|
उन्होंने
ऐसा नियम लिया कि भगवद ध्यान
छोड़कर किसी के दोष नहीं देखूँगा|
इसके
बाद उन्होंने जीवन पर्यन्त
किसी के दोष नहीं देखे। भगवद
ध्यान करते रहे|
वे
ध्यानदास और जगन्नाथदास
श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपा
पात्र थे जिनको तुरन्त निर्दोष
पन का ज्ञान हो गया ,
सो वे
ऐसे वैष्णव थे|
|जय
श्री कृष्णा|
गोसाईंजी परम दयाल की जै।
ReplyDeleteगोसाईंजी परम दयाल की जै।
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