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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव
११०)श्रीगुसांईजी
के सेवक एक ब्राहमण और उसकी
पत्नी की वार्ता
यह
ब्राहमणपूर्व देश में रहता
था,जब
श्रीगुसांईजी पूर्व देश में
गए थे तब वह स्त्री सहित उनका
सेवक हुआ था |
श्रीठाकुरजी
पधरा कर दोनों सेवा करने लग
गए |
उन
दोनों का सेवा में बहुत मन लगा
|दिन
में वे भगवतसेवा करते थे और
रात्रि में भागवद वार्ता करते
थे |
सेवा
के प्रताप से दोनों की विषय
वृति से निवृत्ति हो गई |
दिनरात
भगवद स्वरूप का विचार करते
रहते थे |
इस
प्रकार सेवा करते हुए बहुत
दिन व्यतीत हो गए |
उन्होंने
विचार किया के श्रीनाथजी के
दर्शन करने हेतु व्रज के लिए
प्रस्थान करना चाहिए |
वहाँ
से चलकर वे दोनों थोड़े ही दिनों
में श्रीजी द्वार पहुँच गए |
श्रीनाथजी
की संध्या आरती का समय था अत:
भीड़
बहुतथी |
ब्राहमण
की स्त्री दुर्बल बहुत थी |
उसको
भीड़ में दर्शन नहीं हुए |
उसको
बहुत विरह हुआ |
उसके
नेत्रों में जल आने लगा |
उसकी
यह दशा देखकर श्रीनाथजी स्वयं
पधारे और उसका हाथ पकड़कर निज
मंदिर में ले गए |
वहाँ
वह देह सहित लीला में प्रवेश
कर गई |
वह
ब्राहमण वहाँ अपनी स्त्री को
ढूंढने लगा |
बहुत
ढूंढने पर भी कही नहीं मिली
|
उसब्राहमण
ने श्रीगुसांईजी से विनती की
-''
महाराज,मेरी
स्त्री कहीं भी नहीं मिल रही
है |
बहुत
ढूंढ चुका हूँ |
श्रीगुसांईजीने
उससे कहा -''तेरी
स्त्री तो भगवल्लीला में
प्रवेश कर चुकी है |''उस
ब्राहमण ने विनती की
''महाराज,भगवल्लीला
में तो देह छोडकर जाते हैं,ऐसा
ग्रंथो में लिखा है |
श्रीगुसांईजी
ने आજ્ઞા की
-
''प्रेम
में नियम नहीं होता है |
श्रीठाकुरजी
तो प्रेम के वश में हैं |
प्रेम
कोई निर्बल वस्तु नहीं है |
प्रेम
में लाज,कान,अभिमान
आदि सब छूट जाता है |''
यह
बात सुनकर ब्राहमणने नम्र
निवेदन किया ''
महाराज,मै
उसे एक बार देखना चाहता हूँ
|
मैं
उसे देखकर ही अन्न जल ग्रहण
करूँगा|''
श्रीगुसांईजी
उस ब्राहमण को लेकर परासोली
पधारे |
वहाँ
रास का चबूतरा था |
वहाँ
श्रीगोवर्धन नाथजी रास कर
रहे थे |
उस
ब्राहमण को श्रीगुसांईजी ने
कृपा करके दिव्य दृष्टि प्रदान
की |
उसे
रास के दर्शन हुए |
रास
में उसकी स्त्री भी विधमान
थी |
उसको
रास में देखकर ब्राहमण बहुत
प्रसन्न हुआ |
उसके
मन में विचार आया कि इसके भाग्य
कितने प्रबल हैं ,इतना
प्रबल मेरा भाग्य नहीं हैं |
इस
विचार से उसे बहुत पश्चाताप
हुआ इसके बाद उसने पुनःरास
मण्डल पर देखा तो वहाँ कुछ भी
दिखाई नहीं दिया |
वह
फिर श्रीगुसांईजी के पास आया
और उन्हें दण्डवत करके,उसने
महाप्रसाद लिया |उस
ब्राहमण को अत्यन्त विरहताप
हुआ उसके मुख से ज्वाला निकलने
लगी |
उस
ब्राहमण की भी तत्काल देह छूट
गई |
वह
भी भगवत्लीला को प्राप्त हो
गया |
वे
ब्राहमण और ब्राहमणी श्रीगुसांईजी
के ऐसे कृपा पात्र थे जिनको
भगवत्लीला में जाते हुए थोडा
भी विलम्ब नहीं हुआ |
|जय
श्री कृष्णा|
जय हो कृपानिधान की। यमुनाजी की जय।महाप्रभुजी की जय।गोसाईंजी परम दयाल की जय। गुरुदेव जी की जय।
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