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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
१००)श्रीगुसांईजी
के सेवक ताराचंद्र भाई की
वार्ता
ताराचंद्र
भाई श्रीगोकुल में श्रीगुसांईजी
के दर्शन के लिए आए थे । उन्होंने
श्रीगुसांईजी के दर्शन पूर्ण
पुरषोत्तम रूप में किए|
श्रीगुसांईजी
ने इन्हें नाम निवेदन कराया|
ये
श्रीनवनीतप्रियजी के स्वरूप
में आसक्त हुए|
कुछ
दिन बाद ताराचंद्र का मन चलायमान
हो गया|
वृथा
विचार आने लगे|
तब
श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की -"
वैष्णव
को वृथा लाप,
वृथा
क्रिया तथा वृथा ध्यान वर्जित
है|
यह
सुनकर ताराचंद्र ने जान लिया
कि श्रीगुसांईजी ने मेरे मन
की वृत्ति को पहचान लिया है|
ये
बड़े अन्तर यामी है|
ताराचंद्र
ने इसे अपना बड़ा सौभाग्य स्वीकार
किया|
इसे
शिक्षा के रूप में ग्रहण करके
अपने मन को स्थिर करने का विचार
करने लगे|
उन्हें
"
सर्वोत्तम
स्त्रोत"
में
विचार प्राप्त हुआ -
"
श्रद्धा
विशुद्ध बुद्धियॅ:
पठत्यनुदिन
जन:।
स
तदेकमना सिद्धिमुक्ता
प्राप्नोत्यसंशयम||"
इस
प्रकार ताराचंद्र भाई ने विचार
किया जो श्रद्धा सहित तथा
शुद्ध बुद्धि सहित,
सर्वोत्तम
का नित्य पाठ करता है और एक सौ
आठ नामो को चित्त में धारण
करता है ,
उनका
मन स्थिर हो जाता है|
उस
जीव को कृष्णधरामृत रूपी
सिद्धि प्राप्त हो जाती है,
इसमें
कोई संशय नहीं है|
ऐसा
विचार करके ताराचंद्र श्रीगुसांईजी
की आज्ञा से सर्वोत्तमजी का
नित्य पाठ करने लगे|
इसके
प्रभाव से थोड़े ही दिनों के
बाद श्रीठाकुरजी अनुभव जताने
लग गए|
वे
ताराचंद्र श्रीगुसांईजी के
ऐसे कृपा पात्र थे|
।जय
श्री कृष्ण।
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