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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
-
१९)श्रीगुसांईजी
के सेवक पुरुषोत्तमदास की
वार्ता जो काशी में रहते थे
एक समय
श्रीगुसांईजी काशी पधारे तो
पुरुषोत्तमदास उनका सेवक हुआ
। उनकी स्त्री भी श्रीगुसांईजी
की सेवक हुई|
जब
श्रीगुसांईजी श्रीजगन्नाथरायजी
के दर्शनाथ पधारे तो पुरुषोत्तमदास
भी संग ही आए|
पुरुषोत्तमदास
ने श्रीगुसांईजी को सरवड़ी
महाप्रसाद आरोगवाया । अब तक
वल्लभकुल के बालक पुरुषोत्तमदास
क्षेत्र में वैष्णवों के हाथ
का सरवड़ी महाप्रसाद आरोगते
रहे थे|
लेकिन
पुरुषोत्तमदास की कृपा से
अभी तक श्रीजगन्नाथ राय का
सरवड़ी महाप्रसाद वल्लभकुल
के बालक आरोगते है|
जब
श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल में
पधारे तो पुरुषोत्तमदास
सम्पूर्ण खटला को संग लेकर
श्रीगुसांईजी के संग में
श्रीगोकुल आये|
श्रीगोकुल
में रहकर श्रीगुसांईजी के
श्रीमुख से कथा श्रवण करते
थे| एक
दिन पुरुषोत्तमदास ने
श्रीगुसांईजी से पूछा-"
महाराज,
मर्यादा
मार्ग में और पुष्टिमार्ग
में भेद क्या है?"
श्रीगुसांईजी
ने आज्ञा की -"
मर्यादा
मार्ग में साधन और क्रिया तथा
कर्मबल एवं कर्मफल की इच्छा
व् साधन की मुख्यता होती है|
उसी
का नाम मर्यादा मार्ग है|
पुष्टिमार्ग
में स्नेह पूर्वक कृष्ण सेवा
मुख्य है|
भगवदीय
का सत्संग और केवल भगवद्नुग्रह
का बल तथा केवल निस्साधन पना
व् भगवदधर्म मुख्य है । वे
लौकिक और वैदिक कर्म लोगो को
दिखाने के लिए करते है|
मुख्यता
भगवद धर्म की है|
उसी
को पुष्टिमार्ग कहा जाता है
। यह सुनकर पुरुषोत्तमदास
बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने
सिद्धान्त रहस्य आदि ग्रंथो
को श्रीगुसांईजी के पास ही
सीखा । श्रीठाकुरजी पधारकर
वे सेवा करने लग गए । वे भगवद
रस संबंधी बातें अष्ट प्रहर
श्रीगुसांईजी से सुनते रहते
थे| एक
दिन पुरुषोत्तमदास ने पूछा
-महाराज,
श्रीठाकुरजी
पीताम्बर क्यों धारण करते
हैं ?
श्रीस्वामिनीजी
नील वस्त्र क्यों धारण करती
हैं ?"
श्रीगुसांईजी
ने आज्ञा की -"
श्रीस्वामिनी
गौरवण हैं,
वे कंचन
वर्णी कही जाती हैं|
उनके
बिना श्रीठाकुरजी से रहा नहीं
जाता हैं-जैसे
श्लोक "रूपं
तवैतदति सुन्दर नील मेध
प्रोधत्तदिन्मदहर व्रज
भूषणाडींग|
एतत
समानमिति पीतवरं दुकूल
मूरावुरस्यपि बिभर्ति सदास
नाथ:||"
इसलिए
श्रीठाकुरजी पीताम्बर धारण
करते हैं|
श्रीठाकुरजी
का श्यामवर्ण है,
जिसमें
अगाधरस भरा हुआ है,
उसके
बिना श्रीस्वामिनीजी नहीं
रह सकती हैं अतः श्रीस्वामिनीजी
नीलाम्बर धारण करती हैं|
यह
सुनकर पुरुषोत्तमदास इस रस
में मग्न हो गए|
ऐसी
कितनी ही बातें पुरुषोत्तमदास
ने श्रीगुसांईजी से ग्रहण
की हैं । वे श्रीगुसांईजी के
चरणविन्दों को छोड़कर कही भी
नहीं जाते थे|
वे
पुरुषोत्तमदास श्रीगुसांईजी
के ऐसे कृपा पात्र भगवदीय थे|
।जय
श्री कृष्ण।
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