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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
-
१४
)श्रीगुसांईजी
के सेवक गोपीनाथ दास ग्वाल
की वार्ता
गोपीनाथ
दास ग्वाल वन में गाय-
भैंस
चराते थे|
एक
दिन गोपीनाथ दास को वन में भूख
लगी|
श्रीनाथजी
ने राजभोग की सामग्री में से
आठ लड्डू लेकर वन में आकर
गोपीनाथ दास ग्वाल को दिए|
गोपीनाथ
दास ने मन में विचार किया -"
बिना
श्रीगुसांईजी की आज्ञा के
लड्डू खाना उचित नहीं है|"
उस
ग्वाल ने लाकर वे लड्डू
श्रीगुसांईजी को दिए और कहा
-"
श्रीनाथजी
ने ये लड्डू हमें लाकर दिए
हैं|"
श्रीगुसांईजी
ने उसे आज्ञा की -"
श्रीनाथजी
ने तुम्हें लड्डू दिए हैं,
इन्हें
तुम अवश्य ही खाओ|"
गोपीनाथ
दास ग्वाल श्रीगुसांईजी की
आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं
करते थे|
एक
दिन वन में श्रीनाथजी ने
गोपालदास भीतरिया से कहा -
" मुझे
भूख लगी है|"
तत्काल
गोपालदास भीतरिया ने श्रीगुसांईजी
के पास पहुंचकर उनसे निवेदन
कर दिया|
तब
श्रीगुसांईजी सब शीतल सामग्री
तैयार करके वन में पधारे । धूप
में तीक्ष्ण दाहकता का अनुभव
करते हुए गोपालदास ग्वाल ने
श्रीगुसांईजी से विनती की -"
महाराज,
ऐसी
धाम में क्यों पधारे हो?"
श्रीनाथजी
तो बालक हैं,
आप
धाम के शीतल होने पर पधारते
तो अच्छा रहता । किन्तु
श्रीगुसांईजी ने तो तीक्ष्णधाम
में ही वन में पहुंच कर सामग्री
आरोगाई थी |
गोपीनाथदास
ग्वाल ने श्रीनाथजी से विनती
की-
"महाराज
आपने ऐसी धाम में श्रीगुसांईजी
से इतना श्रम क्यों कराया है?"
आप
आज्ञा करते तो बहुत सामग्री
लेकर सेवक उपस्थित हो जाते|
इस
पर श्रीनाथजी ने आज्ञा की -
" गोपालदास
,
इनके
हाथ के बिना मुझे दूसरे के हाथ
से कुछ भी अच्छा नहीं लगता
है|"
इनके
कहे बिना दूसरे के हाथ से आरोगता
भी नहीं हूँ|"
यह
सुनकर गोपालदास चुप हो गए|
इसी
भाव से श्रीरघुनाथजी ने
श्रीगुसांईजी का नाम "
नाम
रत्नाख्य ग्रन्थ"में
-"
तन्निमन्त्रण
भोजक:",
ऐसा
वर्णन किया है|
वे
गोपालदास ग्वाल ऐसे कृपा पात्र
थे|
।जय श्री
कृष्ण।
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