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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
-
१८)श्रीगुसांईजी
के सेवक प्रेत हतीत पतीत दोनों
भाइयों की वार्ता
दोनों हतीत
और पतीत महानदी के तीर के ऊपर
रहते थे । कोई भी रास्ते में
से निकलता था उसे मार डालते
थे|
एक
बार चाचा हरिवंशजी गुजरात से
गोकुल जा रहे थे|
वे
रास्ता भूलकर उधर से जा निकले
। दोनों प्रेत पर्वत बनकर
रास्ते में आकर पड़ गए|
एक
तो आगे के रास्ते पर आकर पड़
गया और एक चाचा हरिवंशजी के
पीछे के रास्ते पर पहाड़ बनकर
पड़ गया|
चाचाजी
बीच में फंस गए । वे तत्काल
समझ गए,
यह
तो कोई प्रेत बाधा है|
चाचा
हरिवंशजी ने चरणामृत मिलाया
हुआ जल उनके ऊपर छिड़का तो
उन्होंने चाचाजी के प्रताप
को समझा। वे हाथ जोड़कर विनती
करने लगे और उनसे कहा-"
हमारा
उद्धार करो|"
चाचा
हरिवंशजी ने उनको अष्टाक्षर
मंत्र सुनाया|
नाम
सुनते ही उनकी देह दिव्य हो
गई और वे भगवल्लीला में प्रवेश
हो गए|
इसके
पश्चात् चाचाजी गोकुल गए तथा
वहाँ जाकर उन्होंने श्रीगुसांईजी
से विनती की|
श्रीगुसांईजी
ने आज्ञा की -"
सौ
वर्ष से पहले ये दोनों महाठग
थे और वैष्णव का वेश बनाकर
फिरते रहते थे । एक स्थान पर
ये वैष्णव के घर में रुके
थे,वहाँ
पर वैष्णव घर पर नहीं था,
उसकी
स्त्री घर पर थी उस स्त्री को
रात में मार कर उसका सारा माल
(स्वर्णाभूषणादि)
ले
गए|
रास्ते
में उनको अन्य चोर मिल गए,
सो
उन चोरों ने उन्हें मार दिया
और सारा माल ले लिया|
उन्होंने
जैसा किया,
उनको
वैसा फल तो तत्काल मिल गया,
लेकिन
वैष्णव की पत्नी को वैष्णवों
के छदम वेश में रहकर मारा था,
उस
अपराध में ये प्रेत बन गए ।
यदि तुम इनका उद्धार नहीं करते
तो कल्प भर इन्हे प्रेत की
योनि में ही रहना पड़ता|
वैष्णव
के अपराध को क्षमा करने की
शक्ति भी वैष्णव में ही होती
है । उसे श्रीठाकुरजी भी क्षमा
नहीं करते है|
अम्बरीष
के चरित्र से यह बात स्पष्ट
है|
अतः
वैष्णव को अपराध से डरते रहना
चाहिए । इस प्रकार चाचा हरिवंशजी
को श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की
। यह सुनकर सभी वैष्णव बहुत
प्रसन्न हुए । इस प्रकार से
उन हतीत व पतीत का चाचा हरिवंशजी
ने श्रीगुसांईजी की कृपा से
उद्धार किया|
वल्ल्भाख्यान
में गोपालदास ने गाया है -"
हतीत
पतित नो जुओ तुमे प्रकटे धाण-"
सो
वे श्रीगुसांईजी की कृपा से
भगवल्लीला में प्रवेश हुए|
।जय
श्री कृष्ण।
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