Monday, January 25, 2016

Shri Gusaiji Ke Sevak Tarachandra Bhai Ki Varta

२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव १००)श्रीगुसांईजी के सेवक ताराचंद्र भाई की वार्ता

ताराचंद्र भाई श्रीगोकुल में श्रीगुसांईजी के दर्शन के लिए आए थे । उन्होंने श्रीगुसांईजी के दर्शन पूर्ण पुरषोत्तम रूप में किए| श्रीगुसांईजी ने इन्हें नाम निवेदन कराया| ये श्रीनवनीतप्रियजी के स्वरूप में आसक्त हुए| कुछ दिन बाद ताराचंद्र का मन चलायमान हो गया| वृथा विचार आने लगे| तब श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की -" वैष्णव को वृथा लाप, वृथा क्रिया तथा वृथा ध्यान वर्जित है| यह सुनकर ताराचंद्र ने जान लिया कि श्रीगुसांईजी ने मेरे मन की वृत्ति को पहचान लिया है| ये बड़े अन्तर यामी है| ताराचंद्र ने इसे अपना बड़ा सौभाग्य स्वीकार किया| इसे शिक्षा के रूप में ग्रहण करके अपने मन को स्थिर करने का विचार करने लगे| उन्हें " सर्वोत्तम स्त्रोत" में विचार प्राप्त हुआ -

" श्रद्धा विशुद्ध बुद्धियॅ: पठत्यनुदिन जन:
स तदेकमना सिद्धिमुक्ता प्राप्नोत्यसंशयम||"

इस प्रकार ताराचंद्र भाई ने विचार किया जो श्रद्धा सहित तथा शुद्ध बुद्धि सहित, सर्वोत्तम का नित्य पाठ करता है और एक सौ आठ नामो को चित्त में धारण करता है , उनका मन स्थिर हो जाता है| उस जीव को कृष्णधरामृत रूपी सिद्धि प्राप्त हो जाती है, इसमें कोई संशय नहीं है| ऐसा विचार करके ताराचंद्र श्रीगुसांईजी की आज्ञा से सर्वोत्तमजी का नित्य पाठ करने लगे| इसके प्रभाव से थोड़े ही दिनों के बाद श्रीठाकुरजी अनुभव जताने लग गए| वे ताराचंद्र श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपा पात्र थे|

।जय श्री कृष्ण।


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