२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव २४७ ) श्री गुसाँईजी के सेवक एक सौदागर की वार्ता
यह सौदागर आगरा में रहता था। गोपालपुर में श्रीनाथजी के दर्शन करने को आया। श्री नाथजी के दर्शन करके श्रीगुसाईंजी के दर्शन किये उन्हें श्री गुसाँईजी के दर्शन पूर्ण पुरुषोत्तम रूप में हुए। वह सौदागर अपने कटुम्ब सहित श्रीगुसांईजी का सेवक हुआ। श्रीठाकुरजी पधराकर सेवा करने लगा। एक दिन जन्माष्टमी का उत्सव आया। उस सौदागर के पडोश में एक बनिया रहता था जिसका लड़का प्रदेश में जहाज लेकर व्यापर के लिए गया था। उसके पास समाचार आया की जहाज दुब गया है। बनिया रोने लगा। सौदागर ने बनिया से कहा -"आज जन्माष्टमी का दिन है , रोवे मत। " उसने कहा " तेरा बीटा नहीं मरेगा।" उस बनिया ने कहा -"मेटिन दिन तक नहीं रोऊँगा। यदि तुम सच्चे वैष्णव होवोगे ते मेरा बेटा अवश्य ही आएगा। " श्रीठाकुरजी ने सौदागर की बात को सत्य करने के लिए जहाज डूबते समय उसके लड़के को एक पट्टे परजीवित रख दिया था। वह पट्टा धीरे धीरे दो दिन में समुद्र के पर किनारे पर पहुँच गया। तब उसने देश में कागज लिखा तो वह पत्र जन्माष्टमी के दूसरे दिन मिला। उस बनिया ने जाकर सौदागर से कहा -"तुम्हारी वैट सत्य हुई है। बनिया सौदागर के पांवो में गिर गया। सौदागर ने कहा -"यह सब श्री गुसाँईजी का प्रताप है। "तब वह बनिया बेटा को संग लेकर और उस सौदागर को साथ लेकर गोपालपुर में आया। वह बनिया सौदागर के संग से श्रीगुसांईजी का सेवक हुआ। सौदागर ने श्रीगुसांईजी से पूछा -"श्रीनाथजी के चरणविंद खेल के दिनों में क्यों ढके हुए है। तब श्री गुसाँईजी ने आज्ञा की -"जो व्रजभक्त खेलने अत है, तो चरणारविन्द के दर्शन करता है। चरणारविन्द में दासीभक्ति है, जो व्रजभक्त को स्फुरित होती है। तब दासत्व ह्रदय में लेकर श्रीठाकुरजी के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े रहते है। श्रीठाकुरजी खेलते है और श्रीठाकुरजी के सन्मुख व्रज भक्त हाथ जोड़कर नीची दृष्टी करके खड़े रहते है। उस समय श्रीठाकुरजी खेलने का सुख नहीं मिलता है। श्री ठाकुरजी चरणारविन्द को ढककर अर्थात दास्यभक्ति उत्पन्न होती है वे श्रीठाकुरजी सन्मुख खेलते है। श्रीठाकुरजी को खेल का आनंद होता है। इसलिए खेल के समय शृणताःजी के चरणारविन्द , वस्त्र से ढके कर रखे जाते है। यह सुनकर सौदागर और वैष्णव बहुत प्रसन्न हुए। तब से सौदागर ने शृणताःजी के चरणारविन्द अहर्निश ह्रदय में रखे क्योंकि चरणारविन्द से ध्यान हटेगा तो दासत्व सिद्ध नहीं होगा। ईसलिये चरणारविन्द का ध्यान दृढ़ता से रखा था वह सौदागर श्री गुसाँईजी का ऐसा कृपा पात्र था।
| जय श्री कृष्ण |
| जय श्री कृष्ण |
इस प्रकार की हिंदी में लिखने से तो हिंदी और वैष्णव धर्म दोनों की ही छवि धूमिल होगी। कृपया प्रकाशित करने के पूर्व एक बार स्वयं भी पढ़ के देखें तो उचित रहेगा।
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