२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव ७९ ) श्री गुसाँईजी के सेवक एक चोर की वार्ता
एक चोर श्री नवनीतप्रियजी के मंदिर में रात्रि को चिप गया और उसने पात्र, आभूषण, वस्त्र अदि सब इकठ्ठे किये और एक कपडे की पोटली में बाँध लिए। वह उस पोटली को उठाने लगा लेकिन वह गाँठ उससे नहीं उठी। उसने सारी रत जोर लगाया। प्रातः कल वह चोर पकड़ा गया। उसे पकड़कर श्री गुसाँईजी के पास ले गए। श्री गुसाँईजी ने कहा -"इसे छोड़ दो , क्योंकि यदि पृथ्वीपति को पता लगेगा तो वह ऐसे मर डालेगा। " श्रीगुसांईजी को बहुत दया आई और उस चोर को छोड़ दिया। बाद में उस चोर के मन में विचार आया की मुझे बादशाह म,अरवा देता लेकिन श्रीगुसांईजी ने दया करके मुझे छुड़ा दिया हे। इन्होने मुझे कृपा करके प्राण दान दिया हे। में इनकी शरण में जाऊँ तो ठीक रहे। वह चोर श्री गुसाँईजी का सेवक हो गया श्रीगुसांईजी ने उसे चोरी छोड़ देने की आज्ञा दी। उस चोर ने हाथ जोड़कर कहा - "महाराज , मुज पर बिना चोरी किया तो रहा नहीं जाएगा। " फिर श्रीगुसांईजी ने कहा -"अच्छा तू निर्दय होकर चोरी मत कर अर्थात जिसके पास सौ रुपया हो तो उसके दो रुपया की चोरी करेगा तो उसका मन नहीं दुखेगा, जिसकी तू चोरी करेगा। यदि तू सत्यभाषण करेगा तो उसका मन नहीं दुखेगा , जिसकी तू चोरी करेगा। यदि तू सत्यभाषण करेगा तो प्रभु एक न एक दिन तेरा मन फेर देंगे। प्रभु बड़े दयालु हे ,तेरा मन अपने चरणों में लगा देंगे। "यह कहकर उसे वैष्णवता की रीती का उपदेश देकर उसे विदा किया। उस चोर ने एक बार अपने मन में विचार किया की यदि राजा के यहाँ चोरी की जाए तो एक बार में ही काम हो जाएगा। गरीब के घर चोरी अब नहीं करूँगा। ऐसा उसके मन में विचार आया। एक दिन वह चोर राजा के घर में चोरी के लिए गया। वह भद्रपुरुष के रूप में गया। प्रहरी ने पूछा -"तुम काहाँ जा रहे हो?"उसने कहा -"हम चोरी करने जा रहे हे। "सभी ने समजा यह बड़ा मसखरा है जो कह कर चोरी करने जा रहा है। किसी अन्य कार्य से जाता होगा , यह सोचकर उसे अंदर जाने दिया। वह निश्शंक होकर राजमहल के अन्दर चला गया। चोरी करके लौटा तो भी उसने सच कहा -" में चोरी करके आ रहा हूँ। " लोगो ने उसकी बात को मजाक समजकर उसे बाहर जाने दिया। बाद में पता लगा की राजमहल में से जवाहरात चोरी हो गए है। राजा के सिपाहियों ने उसे खोज निकला ओर राजा के समक्ष पेश किया। राजा ने उससे पूछा -"तूने कैसे चोरी की। " उसने कहा में तो सबसे चोरी करने कहकर अंदर गया था और चोरी करके बहार आने पर भी कहा था की चोरी करके आया हूँ लेकिन पहेरेदारो ने मेरी सत्य बात पर ध्यान नहीं दिया। राजा ने उसकी कही गयी बात की जाँच की तो चोर के बयां को सत्य पाया। आतः राजा ने प्रसन्न होकर उसे नौकरी पर रख लिया। उस पर साडी व्यवस्था का भार दाल दिया जिसे उस चोर ने स्वीकार कर लिया। फिर श्रीगुसांईजी को पधारा कर उन्हें बहुत द्रव्य भेंट किया। श्री ठाकुरजी पधारा कर सेवा करने लग गया। श्रीगुसांईजी की कृपा से परम भगवदीय हो गया उसे श्रीगुसांईजी की आज्ञा का ऐसा विश्वास था की उसके लौकिक व अलौकिक सभी कार्य सिद्ध हो गए.
| जय श्री कृष्ण |
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