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वैष्णवो की वार्ता
वह
वैष्णव पूर्व देश में रहता
था,श्रीगुसांईजी
जब पूर्व देश में पधारे थे तो
उनका सेवक हुआ। उसके मन में
आया की श्रीगुसांईजी के दर्शन
कर आऊ,
तो
ठीक रहे। यह विचार करके वह
गोपालपुर में आया। उसने आकर
श्रीगुसांईजी के दर्शन किए।
उसे साक्षात नन्दकुमार के
दर्शन हुए। इसके पश्चात उसने
श्रीगिरिराज पर जाकर श्रीनाथजी
के दर्शन किए। वहा जाकर देखा
तो उसे श्रीगुसांईजी और
श्रीनाथजी एक रूप में दिखाई
दिए। कभी तो उसे श्रीगुसांईजी
के रूप में श्रीनाथजी के दर्शन
हो और कभी श्रीनाथजी में
श्रीगुसांईजी के दर्शन हो।
यह देखकर वह वैष्णव समझ गया
कि श्रीनाथजी और श्रीगुसांईजी
दोनों एक रूप है। जो उनको पृथक
भाव से देखता है वह मनुष्य ही
नहीं है उस वैष्णव ने समझ किया
कि सेव्य और सेवक एक है,
ये
तो सेवार्थ दो रूपों में दिखाई
देते है। वास्तव में एक ही है।
श्रीगोपलदास ने गया है -
"रूप
बेऊ एक ते भिन्न थई विस्तरे
विविध
लीला करे भजन सारे।"
जो
ऐसे श्रीगुसांईजी रूप धरकर
सेवा करके नहीं बतलाते तो सेवा
की खबर कैसे होती?
वस्तुत:
ये
दोनों एक है। सो वह वैष्णव
श्रीगुसांईजी का ऐसा कृपा
पात्र था। दोनों स्वरूप को
एक जानकर मगन रहता था।
|जय
श्री कृष्णा|
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