२५२
वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव-
१५१)
श्रीगुसांईजी
के सेवक एक धोबी ठाकुरजी की
सेवा करने वाले की वार्ता
जब
राजा को श्रीठाकुरजी के धोबी
होने का निश्यच हो गया तो राजा
ने चाचाजी से कहा कि श्रीगुसांईजी
को पधराओ|
श्रीगुसांईजी
के पधारने पर राजा वैष्णव हो
गया और भगवत सेवा करने लगा|
वह
भगवद वार्ता भी करने लगा
श्रीगुसांईजी से यह भी विनंती
की -"चाचाजी
सदैव मेरे पास रहे|"
श्रीगुसांईजी
ने आज्ञा की-
"वर्ष
में पांच दिन चाचाजी तुम्हारे
पास रहेंगे|"
राजा
ने कहा-"महाराज,
बारह
महीना में केवल पांच दिन में
ही मेरा निर्वाह कैसे होगा?"
श्रीगुसांईजी
ने कहा-"श्रीमद
भागवत में कहा है -
एक
क्षणभर भी चाचाजी जैसो का
सत्संग हो तो उस क्षणभर के
आनन्द की समानता स्वर्ग व
अपवर्ग के सुख से नहीं हो सकती
है|
श्लोक
यथा -
"
तुलयामी
लवेनापि न स्वर्ग न पुनभर्वम|
भगवत
संगिसंगस्य मर्त्यानां
किमुताशिश:॥"
"एक
क्षणभर जो भगवत संगी का संग-
सुख
प्राप्त हो,
उसके
बराबर कोई भी सुख नहीं है|
तुमको
तो पांच दिन प्रति वर्ष ये सुख
मिलेगा|
तब
राजा ने हाथ जोड़कर विनंती की-
"महाराज,
एक
वर्ष तो चाचाजी को मेरे पास
अवश्य रखे|"
श्रीगुसांईजी
ने इसे स्वीकार कर लिया|
एक
दिन उस धोबी ठाकुर ने राजा से
कहा -
" मुझे
तुम श्रीठाकुरजी के मन्दिर
में गोखला में बैठा दो और
महाप्रसाद की एक पत्तल मुझे
नित्य धरा दिया करो|
मेरा
समस्त वैभव श्रीनाथजी के यहाँ
भिजवा दो|"
श्रीठाकुरजी
की आज्ञा पालन में राजा ने
वैसा ही किया|
एक
वर्ष तक चाचाजी ने वहां रहकर
राजा को पुष्टिमार्ग की सब
रीति समजाई|
वह
राजा श्रीगुसांईजी का ऐसा
भगवदीय हुआ|
|जय
श्री कृष्णा|
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