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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
५३)श्रीगुसांईजी
के सेवक विरक्त वैष्णव की
वार्ता
वह विरक्त
वैष्णव गुजरात से श्रीजी द्वार
गया|
श्रीगुसांईजी
का सेवक हुआ|
वह
श्रीनाथजी,
श्रीगुसांईजी
और भगवदियों को एक ही स्वरूप
में समझाता था|
वह ब्रज
में फिरा करता था|
एक दिन
रास्ते में एक बुढ़िया के बेटा
को सर्प ने काट लिया,
वह
डोकरी रो रही थी|
उसको
देखकर उस विरक्त को दया आ गई|
उसने
भगवन्नाम सुनाकर उस बालक को
जीवित कर दिया|
यह
देखकर सब लोग उस विरक्त वैष्णव
के पीछे लग गए-"
इस सर्प
के काटे व्यक्ति को जीवित करने
के मंत्र को हमें भी सिखाइए|"
उस
विरक्त वैष्णव ने अष्टाक्षर
मंत्र को स्पस्ट किया उन ग्राम्य
जनों ने कहा-"
यह
मंत्र तो हम भी जानते है|"
ग्राम्यजनों
ने उसका विश्वास नहीं किया
और कहा-"
सर्प
का विष गलाने के मंत्र को
सिखाइए,
इस
अष्टाक्षर मंत्र को तो हम सब
जानते है|"
उस
विरक्त वैष्णव ने कहा-"
मंत्र
के प्रति विश्वास ही प्रभावी
होता है|
मै तो
अष्टाक्षर मंत्र के अलावा
अन्य कोई मंत्र नहीं जानता
हूँ|
मेरा
इस पर अटूट विश्वास है|"
यह
विरक्त वैष्णव जो भी कार्य
करता था नाम के प्रताप से करता
था, ऐसा
कृपा पात्र वैष्णव था|
।जय
श्री कृष्ण।
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