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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
३२)श्रीगुसांईजी
के सेवक एक चुहुड़े की वार्ता
एक
चुहुड़ा गोवर्धन में रहता था|
श्रीनाथजी
प्रतिदिन बिलछु कुण्ड पर खेलने
जाते थे,
वहाँ
पर ही वह चुहुड़ा घास खोदने
जाता था|
श्रीनाथजी
ने उसको वहाँ दर्शन दिये|
वह
चुहुडा प्रतिदिन श्रीनाथजी
से बातें करता था|
एक
दिन वह चुहुड़ा श्रीनाथजी के
साथ गोपालपुर तक बतियाता आया|
श्रीगुसांईजी
ने इसे देखा तो उसे बुलाकर
पूछा-"
श्रीनाथजी
ने तुझसे क्या बातें की हैं?"
उसने
कहा-"
महाराज,
वन
की बातें कर रहे थे|
मुझे
ये वन में प्रतिदिन मिलते हैं|
आपकी
कृपा से मुझको दर्शन देते है|
जिस
दिन मुझको दर्शन नहीं होते
है,
उसी
दिन मेरा अन्न,
जल
छूट जाता है|
ये
कृपा करके उसी दिन,
रात
को या दूसरे दिन प्रातः काल
मुझे दर्शन दे देते है|"
श्रीगुसांईजी
ने अपने मनुष्यों से कहा-"
राजभोग
की माला बोले तब इसको सबसे
पहले दर्शन करा दिया करो|
जब
यह दर्शन करके बाहर आ जाए तब
फिर सभी को दर्शन कराया करो|"
श्रीगुसांईजी
के कथन के अनुसार चुहुड़ा एकदिन
यथा समय पहुँच नहीं सका|
राज
भोग हो चुके|
राज
भोग हो चुके|
ताला
मंगल हो गया(
ताला
लगा दिया गया)
तब
आया|
उसका
चित्त बहुत उदास हुआ|
उदिग्न्ता
के वेग से ज्वर चढ़ आया|
अतः
वह मन्दिर के पीछे जाकर पड़
गया|
उसे
बहुत विरहताप हुआ|
उसके
दुःख को श्रीनाथजी सहन नहीं
कर सके|
श्रीनाथजी
ने अपनी छड़ी से दीवाल खोदकर
एक मोखा बना दिया|
उस
मोखा में से उसे बुलाया|
वह
उठकर खड़ा हुआ|
उसने
श्रीनाथजी के दर्शन किये|
श्रीनाथजी
ने उसे मोखा में से दो लड्डू
दिये|
वह
वहाँ से लड्डू लेकर गिरिराजजी
से नीचे आया|
उसने
उन लड्डूओं में एक तो खा लिया
और दूसरे को अपने अगोछा में
बाँध लिया|
गोपालपुर
में चर्चा फ़ैल गई किसी ने मन्दिर
तोड़कर मन्दिर के पिछवाड़ में
एक मोखा निकाल लिया है|
यह
सुनकर श्रीगुसांईजी भी बहुत
उदास हुए|
सभी
भितरियाओ ने मन्दिर के सामान
की सँभाल की|
सामान
तो कुछ गया नहीं था|
उस
चुहुड़े ने श्रीगुसांईजी से
विनतीकर कहा-"
यह
मोखा तो श्रीनाथजी ने मुझे
दर्शन देने के लिए बनाया था|
उसने
शेष बचा हुआ लडुवा भी दिखाया|
दो
में से एक लड्डू को स्वयं द्वारा
खाना स्वीकार किया|
अब
तो श्रीगुसांईजी ने कहा-"
यह
जब भी दर्शनाथ आए इसे सर्वप्रथम
दर्शन करा दिया करो|
इसके
लिए प्रतिदिन पत्तल भी निकाल
कर दिया करो|
वह
चुहुड़ा श्रीनाथजी का ऐसा कृपा
पात्र था जिसे श्रीनाथजी के
बिना जब कुछ फीका लगता था|
।जय
श्री कृष्ण।
jai shrinath ji prabhu
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