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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव-
१५४)श्रीगुसांईजी
के सेवक एक राजपूत और राजपूत
की बेटी की वार्ता
एक
बार एक राजपूत अपनी बेटी के
ससुराल से विदा कराकर अपने
घर ले जा रहा था। इधर चाचा
हरिवंशजी गुजरात से श्रीजी
द्वार आ रहे थे। रास्ते में
उनका संग हो गया|
चाचा
हरिवंशजी ने जान लिया ये दोनों
बाप -
बेटी
दैवी -
जिव
है|
अत:
विचार
करके उनके संग आए|
सायंकाल
को उनके घर उतरे और भगवद्वर्ता
की|
उस
वार्ता के माध्यम से सभी के
ह्रदय को आद्रकर दिया|
राजपूत
के समस्त परिवारजनों को नाम
सुनाया,
सभी
को अपरस की रीति सिखाई उस राजपूत
की बेटी का मन,नाम
सुनते ही,
श्रीगोवर्धननाथजी
में राम गया|
उसे
भगवान का विरहताप हुआ|
श्रीगोवर्धननाथजी
उस रात्रि में उसके पास पधारे
और उसे सभी सुख प्रदान किये|
श्रीनाथजी
ने कृपा की ;
उस
राजपूत की बेटी को अपने संग
लेकर पधारे|
उस
राजपूत की दिव्य दृष्टी हुई
जिसने अपनी बेटी को श्रीनाथजी
के साथ नित्य लीला में जाते
देखा|
राजपूत
चाचाजी के चरणों में गिर गया
और बोला-"श्रीनाथजी
मेरी बेटी को ले गए,
मुझे
क्यों नहीं ले गए|"
चाचाजी
ने कहा-"तुम्हे
भी ले जायेंगे,
अभी
तुम्हे यहाँ कुछ विशेष कार्य
करना शेष है|"
यह
सुनकर राजपूत बहुत प्रशन्न
हुआ|
वह
चाचाजी के साथ गोपालपुर में
आया|
यहाँ
आकर उसने श्रीगुसांईजी और
श्रीनाथजी के दर्शन किये|
उसे
नाम निवेदन कराया। श्रीठाकुरजी
पधराकर अपने देश में आया|
घर
में भगवद सेवा करने लगा|
श्रीगोवर्धननाथजी
नित्य प्रति उस राजपूत को
दर्शन देते थे|
किसी-
किसी
दिन तो राजपूत की बेटी सहित
उसे दर्शन देते थे|
राजपूत
के संग से सारा गाँव वैष्णव
हो गया|
वह
राजपूत श्रीगुसांईजी का ऐसा
कृपा पात्र था|
|जय
श्री कृष्णा|
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