(वैष्णव - २५२ )
श्रीगुसांईजी के सेवक लाड़बाई तथा धारबाई की वार्ता
लाड़बाई और धारबाई दोनों बहिनें थी| चित्रकूट से दस कोश पर मानिकपुर में लाड़बाई और धारबाई श्रीगुसांईजी की सेवक हुई| ये दोनों बहिनें श्रीठाकुरजी पधरा कर सेवा करने लगी| लाड़बाई वैष्णवों की सेवा बड़ी प्रीति पूर्वक करती थी| इस प्रकार सेवा करते करते दोनों बहिने वृद्ध हो गई| वे दोनों अपना सारा द्रव्य नो लाख रुपया इकट्ठा करके श्रीगोकुल गई और श्रीगुसांईजी से विनती की कि यह द्रव्य (धन) अंगीकार करो| श्रीगुसांईजी ने जाना की यह द्रव्य आसुरी है अत: दु:खदायक है, उन्होंने उसे अंगीकार नहीं किया| फिर दस - पन्द्रह वर्ष पीछे श्रीगोकुलनाथजी भूतल पर विराजते थे| उनको द्रव्य अंगीकार करने की प्रार्थना की| उन्होंने भी इसे आसुरी द्रव्य समझ कर अंगीकार नहीं किया| लेकिन श्रीगोकुलनाथजी के अधिकारी ने श्रीगोकुलनाथजी से बिना पूछे ही एक छत में उस द्रव्य को छिपाकर ऊपर से काँकर डालकर चूना लगा दिया| इस प्रकार वह द्रव्य उस छत में रहा आया| फिर साठ वर्ष के बाद जब औरंगजेब बादशाह ने धार्मिक जुल्म मचाया| उस समय श्रीगोकुल को लूटने के लिए जुल्मी आए| श्रीगोकुल में से सब लोग भाग गए| मंदिर सब खाली हो गये| कोई भी व्यक्ति गाँव में भी नहीं रहा, तब उन म्लेच्छों ने छत खोदी और वह नो लाख रूपया (द्रव्य) निकाल लिया। इसके बाद तो म्लेच्छों ने श्रीगोकुल गाँव के सारे मंदिरों की छतों को खोद दिया| इस प्रकार आसुरी द्रव्य के प्रभाव से सम्पूर्ण गोकुल के मंदिरों की छते खोद डाली गई| वे लाड़बाई और धारबाई ऐसी सेवक थी कि जिनकी बुद्धि आसुरी द्रव्य के रहते हुई फिरी नहीं| तथापि उन्होंने भगवद् धर्म को नहीं छोड़ा इसलिए धन के जितने भी अनर्थ होते हैं, उन्होंने उनको धर्म पथ से विचलित नहीं किया| उनके भगवद् धर्म में बाधा नहीं डाली| वे भगवत् सेवा करती रहीं| जिनका भी मन भगवत् चरणाविन्द में रहता है| उन्हें कोई भी आसुरी बाधा नहीं सताती है|
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जय श्री कृष्ण|
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