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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
-
११
)
श्री
श्रीगुसांईजी का सेवक धर्मदास
(
अडीगवासी
)
की
वार्ता
धर्मदास
आँखों से नहीं देख पाता था ।
श्रीगुसांईजी नित्य प्रति
घोड़े पर दो घडी में श्रीगोकुल
से श्रीजी द्धार पधारते थे ।
इस प्रकार आवागमन नित्य होता
था । एक दिन श्रीगुसांईजी अड़ीग
से बाहर निकले तो रास्ते में
अंधा ब्राह्मण खड़ा था । घोडा
उसके ऊपर से जाने लगा तो
श्रीगुसांईजी ने घोड़े को थामा
। वह ब्राह्मण घबड़ा गया । रास्ते
में इधर -
उधर कहीं
भी नहीं जा सका । तब श्रीगुसांईजी
को बहुत दया आई । श्रीगुसांईजी
घोड़े से नीचे उतरे ,उसके
नेत्रों में जल के छींटे लगाए
तो उसके नेत्र खुल गए । श्रीगुसांईजी
तो घोड़े पर सवार होकर गोपालपुर
पधारे , वह
ब्राह्मण भी पीछे ही पीछे
गोपालपुर पहुंच गया और जाकर
श्रीगुसांईजी के दर्शन किए
। उसने विनती की -
" महाराज
, आज
रास्ते में आपने मुझे नेत्र
दिये है, मै
वही ब्राह्मण हुँ ,
मुझे अपनी
शरण में ले लो । श्रीगुसांईजी
ने दूसरे दिन उस ब्राह्मण को
नाम निवेदन कराया । श्रीनाथजी
के दर्शन कराये । श्रीगुसांईजी
ने कृपा करके उन्हें ग्रन्थ
पढ़ाये । जब तक उसकी देह रही तब
तक वह श्रीगुसांईजी के पास
ही रहा । कुछ दिन पीछे उसकी
देह छूटी तो श्रीगुसांईजी ने
अपने श्रीमुख से कहा -
" धर्मदास
बहुत अच्छा वैष्णव था ।"
।जय
श्री कृष्ण।
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