२५२
वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
-
१०)
श्री
श्रीगुसांईजी के सेवक माधुरीदास
माली की वार्ता
माधुरीदास
माली प्रतिदिन फूल बीनकर हार
बनाकर लाता था । एकदिन श्रीनाथजी
ने माधुरीदास को हार गूंथना
सिखाया । माधुरीदास ने उन के
अनुसार हार गूंथकर श्रीगुसांईजी
को दिया। श्रीगुसांईजी ने
मुखिया को दिया । मुखिया ने
श्रीनाथजी को धराया । हार बड़ा
बहुत था सो मुखिया ने श्रीगुसांईजी
से कहा - "
हार बड़ा
बहुत है ।"
श्रीगुसांईजी
ने माधुरीदास से कहा -
" तुम
नित्य हार गूंथते हो ,
आज ऐसा
क्यों बनाया है ?"
तब माधुरीदास
ने कहा - "
मुझे तो
श्रीनाथजी ने पास बैठकर सिखाया
है ।" तब
श्रीगुसांईजी स्वयं स्नान
करके हार धराने पधारे ,
तब श्रीनाथजी
हार धराया तो हार पूरा था ।
श्रीगुसांईजी ने श्रीनाथजी
से पूछा - "
इसका क्या
कारण है , अब
हार पूरा क्यों है ?"
तब श्रीनाथजी
ने तीन कारण बताये -
" एक तो
, तुम्हारे
हाथ के बिना मुझे किसी अन्य
का हाथ सुहाता नहीं है । दूसरे
- ऐसा
हार हीरों का चाहिए ,
सो रत्नों
का हार बनवाओ । तीसरे -
मुखिया
के मुख से दुर्गन्ध आती है ।
तब से श्रीगुसांईजी ने आज्ञा
की - " मुखिया
से लेकर सभीसेवक मुख बांध कर
सेवा करें । माधुरीदास माली
श्रीगुसांईजी का ऐसा कृपा
पात्र था |
।जय
श्री कृष्ण।
0 comments:
Post a Comment