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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
-
६
)
श्री
गुसाईंजी के सेवक खुशालदास
की वार्ता
वैष्णव
खुशालदास ने बहुत धन कमाकर
संग्रह किया । वह सब धन श्रीगुसाईजी
के पास ले गया । उसी समय अपने
आने की श्रीगुसाईजी को खबर
कराई । श्रीगुसाईजी उस समय
श्रीनाथजी का श्रृंगार कर
रहे थे अत: चुपकर
रहे । सेवा से पहुँचकर राजभोग
पीछे बाहर पधारे तो खुशालदास
ने श्रीगुसाईजी के दर्शन किए
और तीन लाख रुपया की द्रव्य
सामग्री लाया था ; वह
सब उनके लिए समर्पण हेतु सामने
रखी । श्रीगुसाईजी ने खुशालदास
से कहा - " तेरा
यह धन काम का नहीं है तू इसे
वापस ले जा । तेरी इच्छा हो
वैसा कर । " तब
खुशालदास ने पूछा - "
महाराज ,
मेरा क्या
अपराध है , जो
मेरा धन काम का नहीं है ।"
श्रीगुसाईजी
ने कहा - " तेरा
अपराध कुछ भी नहीं है ,
लेकिन तेरा
यह धन उचित नहीं है । हम श्रृंगार
कर रहे थे , उसी
समय इस धन की खबर पाई थी । हमारे
चित में दुविधा ( दो
चित ) हो
गई । धन के नाम सुनते ही हमारा
चित सेवा से अलग हो गया । यदि
यही द्रव्य भण्डार में रहेगा
तो क्या अनर्थ नहीं करेगा ?
यह द्रव्य
हमें नहीं चाहिए ।" उस
खुशालदास ने सोचा - "
तब तो यह धन
मेरी बुद्धि को भी भ्रष्ट
करेगा अत : इस
धन को लूटा देना चाहिए ।"
उसने अपने
विचार को चरितार्थ कर उस धन
को लुटा दिया । वह खुशालदास
श्रीगुसाईजी पर ऐसा विश्वास
करता था । वह श्रीगुसाईजी का
ऐसा कृपा पात्र था जिसने
श्रीगुसाईजी द्वारा तिरस्कृत
द्रव्य में से एक पैसा भी अपने
काम में नहीं लिया ।
।जय श्री
कृष्ण।
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