२५२ वैष्णवो की वार्ता
वह निष्किंचन वैष्णव श्रीगुसांईजी का सेवक गुजरात में हुआ था| उसने मनोरथ विचारा कि मेरे पास धन हो जाए तो मैं व्रज यात्रा को जाऊँ| श्रीनाथजी और सातों स्वरूपों को सामग्री आरोगाऊँ| समस्त कुण्डों में स्नान करूँ|" इस प्रकार मनोरथ विचार करके लोगों से बातें किया करता था| चुन्नीलाल नामक एक सेठ ने उसके मनोरथ को सुना| उसके पास धन बहुत था| उसने उस निष्किंचन वैष्णव को बुलाकर कहा - "मैं तुझको धन देता हूँ| तू अपना मनोरथ पूर्ण कर लेकिन पूण्य मुझे मिलना चाहिए|" उस निष्किंचन वैष्णव ने स्वीकार कर लिया| सेठ चुन्नीलाल ने उसे वान्छित धन प्रदान किया| धन लेकर वह व्रजयात्रा के लिए गया| वहाँ व्रज में अपने सम्पूर्ण मनोरथ किये और एक वर्ष तक गोपालपुर में रहा| श्रीनाथजी की सेवा की और दर्शन किए फिर वह अपने देश में आया| लोगों ने कहा - "यात्रा करने से क्या हुआ? फल तो सारा चुन्नीलाल सेठ ने ले लिया|" उसी समय एक वैष्णव बोला, जो उस समय चुन्नीलाल के पास ही बैठा था| - "पुष्टिमार्ग में पूण्य और फल की अपेक्षा ही नहीं होती है| फल भले ही सेठ चुन्नीलाल ले जाए, लेकिन इस वैष्णव ने व्रज में जो टहल की है, नेत्रों से तो दर्शन लाभ लिया है, उस सुख को सेठ चुन्नीलाल कैसे ले सकेगा?" यह सुनकर सेठ चुन्नीलाल के मन में भावना जाग्रत हुई की मुझे भी वैष्णव होना चाहिए| उसने उस निष्किंचन वैष्णव को बुलाया और उसे अपने साथ व्रज यात्रा कराने पुनः ले गया| श्रीगोकुल में जाकर श्रीगुसांईजी के दर्शन किए| उसे साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम के रूप में उनके दर्शन हुए| सेठ चुन्नीलाल ने प्राथना की - "महाराज, मुझे अपनी शरण में लेओ|" श्रीगुसांईजी ने कृपा करके श्रीनवनीतप्रियजी के सन्निधान में नाम निवेदन कराया|" फिर उस निष्किंचन वैष्णव ने श्रीगुसांईजी से निवेदन कर पुछा - "महाराज, यदि कोई व्यक्ति कोई अच्छा काम करे और उस कार्य के लिए धन अन्य किसी से लेवे, तो फल कार्य करने वाले को मिलेगा या धन खर्च करने वाले को मिलेगा?" श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की - "पुष्टि मार्ग में सकाम कर्म अनित्य धर्मों में गिने गए हैं अनित्य धर्म को वेद विरुध्ध बाधक बताया गया है| पुष्टि मार्ग में निष्काम कर्म का महत्व माना गया है| फल की आशा रखकर सत्कर्म करना वेद विरुध्ध एवं बाधक माना गया है|" यह सुनकर निष्किंचन वैष्णव बहुत प्रसन्न हुआ| सेठ चुन्नीलाल बोला - "महाराज, मेरा रोम रोम कामना से भरा हुआ है, आपकी कृपा होगी तो ही अन्त:करण निष्काम होगा| अन्त: करण को निष्काम करने का कोई उपाय बतावें तो बड़ी कृपा होगी|" श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की - "श्रीठाकुरजी की सेवा करो|" सेठ चुन्नीलाल ने कहा - "महाराज मैं सेवा की रीति को समझता ही नहीं हूँ| आप कृपा करें तो ही सेवा की रीति भी समझ पड़े|" श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की - "इस वैष्णव के पास रहकर मार्ग की विधि सीखो|" उस सेठ ने श्रीगुसांईजी से विनती की - "महाराज यह वैष्णव बड़ा निष्किंचन है आप इसे आज्ञा करें कि यह मुझे छोड़ कर कहीं न जाए| जीवन पर्यन्त मेरे पास ही रहे तो ही मैं सेवा पधराऊँ| मेरे घर में इसी की आज्ञा का पालन होगा|" श्रीगुसांईजी ने उस निष्किंचन ब्राह्मण को सेठ चुन्नीलाल के यहां रहने को कह दिया| श्रीठाकुरजी भी पधार दिये| उस निष्किंचन वैष्णव ने विनती की - "महाराज, आपकी आज्ञा का पालन करते हुए इस सेठ के यहां रहूंगा लेकिन वर्ष में एक बार ब्रज में आऊँगा| श्रीनाथजी और श्रीनवनीतप्रियजी की झाँकी करूँगा| आप चुन्नीलाल सेठ को आज्ञा करें, इसमें मेरा बाधक न बने|" इस पर सेठ चुन्नीलाल ने कहा - "सारा घर और धन ही तुम्हारा है, मैं प्रतिबंध करने वाला कौन हूँ?" दोनों श्रीगुसांईजी से विदा होकर गुजरात आ गए| हिलमिलकर सेवा करने लगे| जन्म भर वह सेठ चुन्नीलाल उस निष्किंचन वैष्णव की आज्ञा में रहे| वह निष्किंचन ब्राह्मण श्रीगुसांईजी का ऐसा कृपा पात्र था|
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जय श्री कृष्ण|
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