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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव-१५८)श्रीगुसांईजी
के सेवक प्रेतों के उध्द्वार
की वार्ता
एक
बार श्रीगुसांईजी गुजरात
पधारे तो एक गाँव के बाहर
उन्होंने विश्राम(डेरा)
किया|
श्रीगुसांईजी
उस गाँव में कभी पधारे नहीं
थे|
सायंकाल
हो जाने पर उन्होंने गाँव के
बाहर डेरा कर लिया|
वहाँ
पर दो प्रेत रहते थे|
उन
दोनों प्रेतों ने सोचा -
" इनकी
शरण में जाने पर हमारा उद्धार
सम्भव है|"
अत:
प्रेतों
ने श्रीगुसांईजी के जलघडिया
को अपना रूप दिखाया|
जल
घड़िया ने श्रीगुसांईजी से
कहा -"महाराज,
इस
कूप में मुझे दो प्रेत दिखाई
दे रहे है|
इनकी
दॄष्टि का जल अपने काम में आ
सकता है या नहीं|
श्रीगुसांईजी
उन्हें देखने के लिए कूप तक
पधारे|
दोनों
प्रेतों ने उन्हें देखकर
साष्टांग दण्डवत किया।
श्रीगुसांईजी ने इनके ऊपर
कृपा दॄष्टि करके इन्हे नाम
निवेदन कराया|
वे
दोनों तत्काल प्रेत योनि से
छूटकर भगवल्लीला में लीन हो
गए|
उस
गाँव में वैष्णववजन रहते थे,
उन्होंने
श्रीगुसांईजी से पूछा -
" ये
पिछले जन्म में कौन थे?"
श्रीगुसांईजी
ने आज्ञा की -"ये
दोनों पहले जन्म में कान्य
कुब्ज ब्राह्मण थे। मर्यादा
मार्ग के वैष्णव थे|
मर्यादारीति
से सेवा करते थे|
जब
उस ब्राह्मण की देह छूटने लगी
तो उसकी स्त्री ने कहा-"अब
में कैसे करू?"
उस
ब्राह्मण ने कहा-"तू
अन्न जल त्यागकर देह छोड़ देना|"
उस
स्त्री ने वैसा ही किया,
उसने
भगवत सेवा छोड़कर देह त्याग
की|
उसके
पति ने उसे देह त्यागने का
रास्ता बताया अत:
दोनों
प्रेत योनि में रहे|
अब
इनका उद्धार हुआ है"।
इसीलिए वैष्णव को सहज ही भगवत
सेवा नहीं छोड़नी चाहिए|
किसी
को भगवत सेवा छोड़ने की सलाह
भी नहीं देनी चाहिए|
भगवत
सेवा के आगे भी धर्म तुच्छ है।
भगवत सेवा से बढकर कोई धर्म
नहीं है|
श्रीठाकुरजी
ने गीता में कहा है-
"सर्वधर्मान्
परित्यज्य मामेक शरणं व्रज|"
इन
वचनो के प्रमाण से भगवत सेवा
के आगे सब धर्म तुच्छ है|
इस
रीती से भजन सेवा आदि श्रेष्ठ
है|
अन्य
सब धर्म तुच्छ है। यह सुनकर
सभी वैष्णव बहुत प्रशन्न हुए|
वे
दोनों प्रेत श्रीगुसांईजी
की कृपा से भगवल्लीला में गए|
|जय
श्री कृष्णा|
Giriraj Dharan ki Jai
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