२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव १८० ) श्री गुसाँईजी के सेवक वेणीदास की वार्ता
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वेणीदास पूर्व देश वाशी वैष्णव मंडल क साथ श्री गोकुल में आए. यहाँ उन्होंने श्रीगुसांईजी के दर्शन किये। उन्हें श्री गुसाँईजी के दर्शन कोटि कन्दर्प लावण्य पूर्ण पुरुषोत्तम के रूप में हुए. वेणीदास ने विचार किया की इनके शरण में जाने से बहुत अच्छा होगा। यह विचार एते ही वे श्री गुसाँईजी के सेवक हो गए. उन्होंने श्री नवनीतप्रियजी की दर्शन किये तो ऊन्हे भगवत स्वरुप का ज्ञान हुआ. जब उन्होंने श्रीनाथजी के दर्शन किये तो उन्हें देहानुसंधान ही नहीं रहा. तब श्री गुसाँईजी ने आज्ञा की - "श्री नाथजी के दर्शन किए " वेणीदास ने विनय पूर्वक निवेदन किया - " आपकी कृपा से श्रीनाथजी ने मुझे दर्शन दिए " जिव की साम्यर्थ कहाँ हैं की वह श्री नाथजी के दर्शन कर सके.श्रीनाथजी आपके वश में हैं आपकी इच्छा होतो श्रीनाथजी दर्शन देते हैं. " वेणीदास के विनय करने पर श्रीगुसांईजी ने उनके लिए श्रीठाकुरजी की सेवा पधराई। वे श्री गुसाँईजी के पास रहकर पुष्टिमार्ग की रीती को सिख सके एक दिन वेणीदास श्री गुसाँईजी से आज्ञा लेकर अपने देश के लिए चल दिए रस्ते में एक दिन बरसात बहुत पड़ी. वे गावँ में स्थान तलाशने के लिए चल पड़े. एक बड़ी जगह पर वेणीदास उतरे। वहाँ उन्होंने श्री ठाकुरजी की सेवा की और महाप्रसाद लिया। रात्रि के समय जब वेणीदास भगवदवार्ता कर चुके उन्हें एक प्रेत खड़ा हुआ दिखाई दिया। वेणीदास ने उनसे पूछा - " तुम कौन हो?" उसने कहा - " मैं यहाँ का प्रेत हूँ. यहाँ जो कोई भी आकर उतरता हे, वह वापस लौटकर जीवित नहीं जाता हे. परन्तु तेरे ऊपर मेरा देव नहीं चल पा रहा है. " वेणीदास को प्रेत पर दया आई, उसके ऊपर जल के छींटे मरे तो उसकी प्रेत योनि छूट गयी. उसकी दिव्य देह हो गयी.वेणीदास से प्रेत ने हाथ जोड़कर कहा - " तू धन्य है, तूने मेरी प्रेत योनि छुड़ा दी है. अब मैं तेरी कृपा से वैकुण्ठ में जाऊंगा। मेरी प्रेत योनि को छुड़ाने की किसी में भी साम्यर्थ नहीं था.इतना कहकर तथा वेणीदास को दंडवत करके वह प्रेत वैकुण्ठ में चला गया. वेणीदास अपने देश मैं जाकर भलीभाँति से श्रीठाकुरजी की सेवा करने लगे. वेणीदास श्री गुसांईजीके ऐसे कृपा पात्र थे.
|| जय श्री कृष्ण ||
|| जय श्री कृष्ण ||
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