Friday, April 14, 2017

Shri Gusaiji Ke Sevak Ek Virakt Ki Varta

२५२ वैष्णवो की वार्ता 
(वैष्णव - ५९श्रीगुसांईजी के सेवक एक विरक्त की वार्ता

वह वैष्णव श्रीगोकुल में रहकर चुटकी माँगकर अपना निर्वाह करता था| उसी गाँव में एक वैष्णव क्षत्राणी थी, जिसके पास द्रव्य बहुत था| वह विरक्त वैष्णव उस क्षत्राणी के घर बहुत जाता था, भगवद्वार्ता करता था| परन्तु लोग उसकी निन्दा करते थे| एक दिन उस वैष्णव से श्रीगुसांईजी ने पूछा - "तू उस क्षत्राणी के घर क्यों जाता है?" उस वैष्णव ने उत्तर दिया - "महाराज, मेरा उससे कोई मतलब नही है| हाँ कभी कुछ द्रव्य का काम पड़ जाता है तो उसे लेकर काम चला लेता हूँ|" श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की - वैष्णव को द्रव्य पात्र की खुशामद नही करनी चाहिए| श्रीमद्भागवत में लिखा है - ( श्लोक - सत्यां क्षितौ किं कशिपो: प्रयास ..... स्वसिध्दे ..... किम । सतयजजलौ किं पुरुधान्न पात्रया दिग्वल्कलांदो सति किं दुकूलैं: ॥ चीराणि कि पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां। ... परभृत: सरितोदपयष्शयन। ...। रुध्दगुहा: किमजितोडवातिनोपसन्नान कस्माद भजन्ति कवयो धन। ..... ॥ इस प्रकार अनेक श्लोकों की व्याख्या करके श्रीगुसांईजी ने उस विरक्त को समजाया| श्रीगुसांईजी परम दयालु है| उस वैष्णव को संसार में डूबता हुआ देखकर श्रीगुसांईजी ने एक लौकिक चरित्र रचा| उस वैष्णव से श्रीगुसांईजी ने कहा - "हमें पाँच हजार रुपया उधार चाहिए| हम एक माह में द्रव्य पुनः(वापिस) कर देंगे| उस क्षत्राणी से तुम अपने नाम से उधार लेकर हमें दो| "यह सुनकर वह वैष्णव उस क्षत्राणी के यहाँ से अपने नाम से पाँच हजार रुपया ले आया और उसने श्रीगुसांईजी को दे दिये| श्रीगुसांईजी ने रुपया लेकर ज़मीन में गाड़ दिये| जब डेढ़ महीना हो गया तो उस क्षत्राणी ने उस वैष्णव से रूपये माँगे| वैष्णव ने श्रीगुसांईजी से कहा की क्षत्राणी ने रुपयों को पुनः माँगा है| श्रीगुसांईजी ने कहा - "हम तो वर्ष - दो वर्ष पीछे परदेश जाएँगे, तब रुपया लाएँगे और तभी उन रुपयों को चुका पाएँगे| वैष्णव तो सुनकर चुप हो गया लेकिन उस क्षत्राणी ने उस विरक्त वैष्णव को सिपाहियों के पहरे में बैठा दिया| उसे चुटकी मांगने नही जाने दिया| उसे अपने घर भी नही जाने दिया| एक बार श्रीगुसांईजी के दर्शन करने की इसने इच्छा की तो क्षत्राणी ने विचार किया - "इसे अधिक तंग करना ठीक नहीँ है| यदि इसे ज्यादा तंग करुँगी तो श्रीगुसांईजी इसके रूपये देंगे| वह चार सिपाहियों से घिरा हुआ श्रीगुसांईजी के दर्शन करने गया| श्रीगुसांईजी ने पूछा - "क्या बात है ?" तब वैष्णव रो पड़ा और अपनी सम्पूर्ण हकीकत सुना दी| श्रीगुसांईजी ने कहा - "क्षत्राणी से तो तेरी मित्रता थी| उसके पास चार - पाँच लाख रूपया है और खानेवाला कोई भी नही है| तुम्हें पाँच हजार के लिए ऐसा तंग किया है, अब तुम क्या करोंगे?" उस वैष्णव ने कहा - एक बार उसके रुपया चुक जाने पर उसका कभी मुँह भी नही देखूंगा| मुझे तीन दिन हो गए है| मैंने कुछ भी अन्न- जल ग्रहण नही किया है|" यह सुन कर श्रीगुसांईजी ने गड़े हुए रूपये निकलवाए और वैष्णव से कहा - "हमें द्रव्य की कोई आवश्यकता नहीँ थी, तुम्हारी आसक्ति मिटाने के लिए यह सब कुछ करना पड़ा है|" उसने क्षत्राणी को पाँच हजार रुपया सौंप दिए| उस वैष्णव ने मन में समझ लिया की श्रीगुसांईजी के बिना ऐसी कृपा कौन करे? संसार में डूबते जनों की कौन रक्षा करे| उस वैष्णव ने प्रतिज्ञा कर ली की क्षत्राणी का मुँह नहीं देखूँगा| सो वह वैष्णव ऐसा कृपा पात्र था जिसकी संसारासक्ति श्रीगुसांईजी ने छुड़ायी|
                                                           

                                                                           | |जय श्री कृष्णा||

                                                 
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