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वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव – ८७) श्रीगुसांईजी के सेवक एक ब्रजवासी की वार्ता
(वैष्णव – ८७) श्रीगुसांईजी के सेवक एक ब्रजवासी की वार्ता
एक
ब्रजवासी श्रीनाथजी को 'परे'
कहता था|
वह गायों की खिरक में
सेवा करता था और एक सीधा भण्डार
में से ले जाता था वह आठों प्रहर
गायों की सेवा करता था|
एक बार श्रीगुसांईजी
किसी वैष्णव को श्रीठाकुरजी
पधरा कर दे रहे थे|
उन्हें उस ब्रजवासी
ने देखा| एक
दिन उस ब्रजवासी ने श्रीगुसांईजी
से प्रार्थना की -
"महाराज,
मुझको भी श्रीठाकुरजी
पधरा कर दें|"
उस समय श्रीगुसांईजी
स्नान करके पधार रहे थे|
आगे एक पत्थर पड़ा था,
उस पत्थर को श्रीगुसांईजी
के खड़ाऊँ की ठोकर लगी अत:
वह पत्थर दूर जाकर
पड़ा| वहाँ
पर ब्रजवासी भी खड़ा था,
अत:
श्रीगुसांईजी ने कहा
- "परे
---- परे
----" इस
प्रकार कहकर श्रीगुसांईजी
अन्दर पधार गए|
उस ब्रजवासी ने उस
पत्थर को उठा लिया और उसने
समझा कि श्रीगुसांईजी ने मुझे
श्रीठाकुरजी पधरा कर दिए है
और इन श्रीठाकुरजी का नाम "परे
-- परे"
है| वह
इतना भोला था कि पत्थर को
ठाकुरजी मानकर उठा लाया|
अब जब घर आया तो उसने
विचार किया| एक
सीधा आता है,
उसे तो यह 'परे'
(श्रीठाकुरजी)
खायेगें फिर मैं क्या
खाऊँगा?" उसने
भण्डारी से कहा -
"आज से मुझको दो सीधे
दिया करो|"
भण्डारी ने दो सीधे
दे दिये| ब्रजवासी
ने जाकर रसोई की और दो पत्तल
रखकर कहा - "आ
भाई 'परे"
इनमें एक पत्तल तेरी
और दूसरी मेरी|"
श्रीठाकुरजी आये ही
नहीं| ब्रजवासी
बड़ा भोला था|
उसने पुन:
कहा -
"देख भाई,
अपनी पत्तल उठाकर भोजन
करने बैठना नहीं तो मैं दोनों
पत्तल उठाकर तालाब मैं दाल
आऊँगा|"
श्रीठाकुरजी उसके
शुद्ध और भोले भाव को जानते
थे, अत:
अपना साक्षात् स्वरुप
धरकर अरोगने बैठगए इस प्रकार
दोनों समय प्रतिदिन कृपा करते
थे| एक
दिन श्रीगुसांईजी ने ब्रजवासी
से पूछा - "तू
दो सीधे ले जाता है|
एक तो खाता होगा और
दूसरे सीधे का क्या करता है|"
ब्रजवासी सहज भाव से
बोलै - "आपने
ही तो मुझको 'परे'
पधराया है|
अत: एक
पत्तल उसके लिए लगाता हूँ और
एक मेरे लिए लगाता हूँ|
हम दोनों साथ -
साथजीमते हैं|
श्रीगुसांईजी मुस्करा
कर चुप रह गए|
एक दिन भण्डारी ने उस
ब्रजवासी से कहा -
"तुम सूरत गाँव जाकर
भेंट लेकर आओ|"
उस ब्रजवासी ने कहा
- "सूरत
गाँव कहां है|"
उस भण्डारी ने कहा -
"सूरत तो बड़ा शहर
है|" उस
ब्रजवासी ने कहा -
"भेंटपत्र और प्रसाद
की थैली दो, मैं
सूरत चला जाऊँगा|"
भण्डारी ने उसे भेंट
पत्र और प्रसाद की थैली दे दी|
उसने घर आकर रसोई की
और सूरत जाने की तैयारी करने
लगा| उसने
श्रीठाकुरजी से कहा -
"भैया परे,
मैं तो सूरत जाऊंगा,
तू चलेगा या यहीं
रहेगा?"
श्रीठाकुरजी ने कहा
- "मैं
तो तेरे संग ही चलूँगा|"
उस ब्रजवासी ने कहा
- "भैया,
तू छोटे छोटे हाथ पैरों
से मेरे साथ कैसे चलेगा?"
श्रीठाकुरजी ने कहा
- "जब
तक मुझ पर चला जाएगा मैं चलूँगा,
नहीं तो तेरे कंधे पर
बैठ जाऊँगा|"
इस पर ब्रजवासी सहमत
हो गया और सूरत क लिए 'परे'
के साथ चल दिया|
दो तीन कोस चलने पर
श्रीठाकुरजी ने कहा -
"मैं थक गया हूँ,
मुझे कंधे पर बैठा
लो|" ब्रजवासी
ने उन्हें अपने कंधे पर बैठा
लिया| सांझ
के समय श्रीठाकुरजी ने एक
स्थान पर कहा -
"यहाँ आज विश्राम
कर लो, कल
सूरत चलेंगे|"
दोनों वहाँ सो गए जब
जागे तो वहाँ आँख खुली जहाँ
से सूरत केवल दो कोस था|
दुसरे दिन चलकर सूरत
आ गए, गाँव
बाहर डेरा कर लिया|
श्रीठाकुरजी को डेरा
पर बैठकर ब्रजवासी भेंट पत्र
व प्रसाद की थैली लेकर वैषण्वों
के पास गया|
वैष्णवों ने पत्र
बाँचकर विचार किया -
"यह कल से चलकर आज
सूरत कैसे आ गया?"
श्रीगुसांईजी की
सामर्थ का ध्यान करते हुए
वैष्णवों ने सबके रूपये एक
ही दिन में इकट्ठे करके,
पांच हजार रूपये की
हुण्डी करा दी|
हुण्डी लेकर ब्रजवासी
डेरा पर आया और परे को साथ लेकर
गोपालपुर क लिए रवाना हो गया|
रास्ते में दोनों एक
स्थान पर सो गए|
फिर प्रात:काल
उठाकर प्रहरभर दिन चढ़ने पर
गोपालपुर आ गए|
गोपालपुर आकर वह भण्डारी
क पास आज्ञा और बोला -
"दो सीधे देओ|"
उस भण्डारी ने कहा -
"तू सूरत क्यों नहीं
गया?" उसने
कहा सूरत जाकर आज ही आया हूँ|
उसने भण्डारी को सब
सामान दिया|
भण्डारी ने पत्र बाँचा
और हुण्डी को सँभाला|
उस पर तारीख देखकर
भण्डारी को बड़ा आश्चर्य हुआ|
उसने सारी बात श्रीगुसांईजी
से निवेदन की|
श्रीगुसांईजी ने पत्र
बाँचकर हुण्डी की तारीख पढ़कर
कहा - "यह
सब तो श्रीनाथजी का चमत्कार
है| आज
के बाद इस ब्रजवासी को ऐसा कोई
काम मत देना|
जीवन पर्यन्त इसको
दो सीधा देते रहना|"
श्रीगुसांईजी सब कुछ
जान गए अत: उसे
बुलाकर 'परे'
की बातें पुछा करते
थे| वह
ब्रजवासी इतना भोला था कि जीवन
पर्यन्त श्रीठाकुरजी को 'परे'
ही समझता रहा|
श्रीगुसांईजी का कृपा
पात्र ऐसा भगवदीय था जो श्रीनाथजी
को 'परे'
के रूप में मानता रहा|
|जय
श्री कृष्णा|
Jai Shree Krishna.
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