२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव ८०)श्रीगुसांईजी के सेवक की वार्ता( जो दिल्ली में रहता था)
दिल्ली के
वैष्णव
श्रीनाथीजी के दर्शन
करने
के
लिए
गए|
वे
दर्शन
करके
बहुत
प्रसन्न
हुए|
उन्होंने
श्रीरामचन्द्रजी का माहात्म्य बहुत सुना
था|
अतः
उनके
मन
में
अयोध्या
जाकर
श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन
करने
का
भी
उत्साह
हुआ|
वे
श्रीगुसांईजी की आज्ञा
लेकर
श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन
करने
के
लिए
अयोध्याजी गए| वहाँ
पहुँच
कर
उनके
मन
में
भाव
आया
कि
यहाँ
पर
श्रीनाथजी जैसा सुख
नहीं
है|
अतः
वह
श्रीरामचन्द्रजी की ओर
पीठ
करके
खड़ा
हो
गया|
इस
दुभार्व
से
उसे
कुष्ठ
हो
गया|
उसने
श्रीरामचन्द्रजी से कहा
- " मै श्रीनाथजी को
छोड़कर
आपके
दर्शन
करने
आया
हूँ|
यही
मेरा
बड़ा
अपराध
है|
इस
अपराध
का
निस्तारण
कुष्ठ
मात्र
से
क्या
हो
सकेगा|
मेरे
तो
रोम
रोम
में
कीड़े
पड़ने
चाहिए
तभी
मेरे
अपराध
की
निवृति
होगी|
इस
प्रकार
अनन्यता
की
वाणी
सुनकर
श्रीरामचन्द्रजी बहुत हँसे|
उन्होंने
आज्ञा
दी-"
जाओ,
श्रीनाथजी के दर्शन
करो|
श्रीरामजी के वचन
सुनते
ही
उसका
कुष्ठ
दूर
हो
गया|
उसने
वहाँ
से
आकर
श्रीनाथजी के दर्शन
किए|
इस प्रकार वे
अनन्य
वैष्णव
थे|
उनकी
अनन्यता
देखकर
श्रीनाथजी बहुत प्रसन्न
हुए
और
उनको
हर
प्रकार
से
अनुभव
भी
जताए|
।जय श्री कृष्ण।
श्री जी बाबा की जय। श्री यमुना महारानी की जय। श्री महाप्रभु जी की जय। श्री गोसाईंजी की जय। गुरुदेव जी प्यारे की जय।
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