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वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव
४७)श्रीगुसांईजी
के सूरत निवासी सेवक की वार्ता
वह वैष्णव
प्रति वर्ष ब्रजयात्रा करने
के लिए जाया करता था|
श्रीनाथजी
के दर्शन करके और व्रजयात्रा
पूर्ण करके वापस आता था|
वह
वैष्णव व्रज की हाँडी रखता
था|
नित्य
प्रति रसोई करके धोकर कम्बल
में बाँधकर वृक्ष में लटका
देता था|
एक दिन
वैष्णवों ने श्रीगुसांईजी
से कहा-"
यह
वैष्णव अनाचार फैलाता है|"
श्रीगुसांईजी
ने उस वैष्णव से पूछा|
उसने
कहा-
" ये
सब वैष्णव बाह्य दॄष्टि के
है|"
व्रज
के स्वरूप को नहीं जानते है|
फिर
भी आपकी कृपा से इनको व्रज का
स्वरूप दिखाता हूँ|"
इतना
कहकर उस वैष्णव ने सभी को व्रज
का स्वरूप दिखाया|
सभी
वैष्णवों को समस्त व्रज स्वर्णमय
दिखाई देने लगा|
सभी
वैष्णवों को श्रीगुसांईजी
ने कहा-"
इसने
व्रज रज के स्वरूप को जान लिया
है अतः इसको कुछ भी बाधा नहीं
है|
सामथ्यवान्
कुछ भी कर सकता है|
लेकिन
अन्य वैष्णव ऐसा करने से बचें|
सभी
वैष्णव उसको धन्य धन्य कहने
लगे|
वह
श्रीगुसांईजी का ऐसा कृपा
पात्र था जिसने व्रज को स्वर्णमय
दिखा दिया|
वह व्रज
रज की बनी हाँडी को स्वर्णमय
समझकर कभी हटाते नहीं थे|
प्रतिदिन
धोकर रख देते थे|
वह सेवक
ऐसा परम भगवदीय था|
।जय
श्री कृष्ण।
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